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तपोनिरत श्रमरगों को अस्थियों के राम को करुणाविगलित तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ थे । इनका समय लगभग कर दिया। उन्होंने उनकी रक्षा का सफल प्रयत्न किया आठवीं सदी ई० पू० माना जाता है। ये काशीवासी थे। और वे जैन धर्म में पाठवें बलदेव के रूप में प्रतिष्ठित सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थान काशी और ग्यारहवें तीर्थकर हो गये ।
श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि सारनाथ के समीप रहने के महा भारत काल में जैन सम्प्रदाय के तीर्थकर कारण इन्हें अवसर मिला कि श्रमणों का सुदृढ और नेमिनाथ थे । नेमिनाथ का सम्बन्ध घोर पांगिरस से जोडा सुगठित संघ स्थापित कर सकें । अहिंसा-धर्म और जाता है। पांगिरस भरत के ही अवतार माने जाते अहिंसक-यज्ञ की कल्पना तो पार्श्वनाथ से पूर्व ही साकार हैं। पांगिरस के उपदेश छान्दोग्य उपनिषद में हैं। जिसका हो चुकी थी। इसके प्रतिष्ठाता तो ऋषभदेव तथा घोर दृष्टिकोण यज्ञ की ब्राह्मण-पद्धति के सर्वदा विपरीत आंगिरस थे । बाद के तीर्थकरों ने इसका प्रचार और है। श्री कृष्ण भी घोर आगिरस के शिष्य थे और प्रसार भर किया। सन्यासियों या श्रमरणों के लिए उन्होंने अर्जुन को जो उपदेश दिया उसमें यज्ञ का अर्थ तपस्विता रूक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता को प्रमखता ही बदल दिया। उनकी दृष्टि में
मिली और गृहस्थो के लिए सदाचार के पृथक् नियमों के द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथाऽपरे ।
निर्देश किए गये । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और स्वाध्याय ज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।४।२८।
अपरिग्रह गृहस्थों के लिए अनिवार्य व्रत-नियम घोषित
किये गये । श्रमण और गृहस्थ दोनों के लिए समान द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ,
रूप से बुद्धि, धार्मिकता, वंश जाति, शरीर यौगिक ज्ञान यज्ञ तो हैं ही, हठ योग यज्ञ (४।२६) नियताहार
शक्तियां, योग और तप, तया रूप और सौन्दर्य-जन्य व्रत यज्ञ (४।३०) भी हैं, परन्तु उन्होंने स्वयं माना
अहंकारों को त्याज्य माना गया । पार्श्वनाथ जी के समय है कि
श्रमरणों के लिए कृच्छ तप और गृहस्थों के लिए सदाचार श्रेयान्द्रव्य मयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप । के नियम कठोरता ग्रहण करने लगे । इस समय तक सर्वकर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥४॥३३ ब्राह्मण-परम्परा में दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रहे __ज्ञान यज्ञ सबसे श्रेष्ठ है । निश्चय ही यह मान्यता
होगे। एक अभी प्राचीन यज्ञ शैली और उसके दृष्टिकोण उपनिषदों की परम्परा को ही सूचित करती है। गीता का अनुयायी रहा होगा और दूसरे ने श्रमण वर्ग की का समन्वयवादी दृष्टिकोण है। जिसमें ज्ञान, भक्ति, और
सांस्कृतिक देन को अपना कर धर्म और उसके स्वरूप कर्म को ही नहीं, अनेकानेक पद्धतियों को भी समेटने का को पुनमूतित कर दिया होगा । इस द्वितीय वर्ग के प्रयत्न किया गया है। मुण्डकोपनिषद् में, विद्या के प्रतिनिधिया का दृष्टिकोण थापरा (प्रात्म) और अपरा (भोगदा) विद्या के विभाजन धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी। कृष्ण ने उन पद्धतियों धो विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।मनु०॥ में भी समन्वय करने का प्रयत्न किया पर श्रेष्ठता पर या धर्म के इन दश लक्षणों में सदाचार के नियमों का अात्मविद्या को, द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ को, कर्म ही समावेश किया गया है। को अपेक्षा सन्यास को, और सामान्य जीव से स्थितप्रज्ञ, ई०पू० ५६४ या ५६७ में जब भगवान महावीर या सिद्ध को ही महत्त्व दिया है। नेमिनाथ बाइसवें का जन्म हुया, उस समय तक अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा
थे और श्री कृष्ण के चचेरे भाई माने जाते हैं। हो चुकी थी। सदाचार के निश्चित नियमों का पालन महाभारत से पूर्व २१ तीर्य करों की स्थिति ही जैन धर्म करना अनिवार्य बन गया था। हिंसक यज्ञों को मान्यता और उसकी सांस्कृतिक देन की परम्परा को सदर प्रतीत देने वाले ब्राह्मण सम्प्रदाय का प्रभूत्व क्षीण हो चुका तक खींच ले जाने में समर्थ है।
था। मनु की उपरोक्त धर्म व्यवस्था से यह भी स्पष्ट
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