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कर्ममीमांसा
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वर्तमान में वैज्ञानिकों ने विविध प्रकार की वनस्पतियों पर कुछ प्रयोग किये हैं, जिनमें उन्हें सफलता भी मिली है। वे खट्टे नीबू को प्रयोग द्वारा मीठा कर सकते हैं, फूलों का रंग और आकृति भी बदल सकते हैं। इंजेक्शन द्वारा पशुओं और मनुष्यों की नस्ल में भी वे सुधार कर सकते हैं। इससे भी अपने-अपने नियत साधनों से उस उस जीव की उत्पत्ति का ज्ञान होता है ।
इसी प्रकार प्रत्येक जीव का शील-स्वभाव और शरीर की रचना बाह्य परिस्थिति पर अवलम्बित जान पड़ती है। एक जीव क्रोधी होता है और दूसरा शान्त । यह भेद उस उस जीव की शरीर रचना और बाह्य परिस्थिति पर अवलम्बित है। सामुद्रिक शास्त्र में भी इसके कुछ निश्चित नियम दिये गये हैं । इसलिए यह शंका होती है कि जिन कारणों से जीव की उत्पति होती है या जिन कारणों से उनका शील स्वभाव बनता हैं, उनके सिवाय इनकी उत्पत्ति का कर्म नामक अन्य अज्ञात कारण नहीं है। यदि कर्म की सत्ता स्वीकार न की जाय, तो भी विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति, आकृति और शील-स्वभाव में जो अन्तर दिखाई देता है, वह बन जाता है ।
प्रश्न मार्मिक है और किसी अंश में वास्तविक स्थिति पर प्रकाश डालनेवाला भी । पर यहाँ विचारणीय विषय यह है कि जीव द्रव्य स्वतन्त्र होकर भी इन विविध प्रकार के आकारों और शील-स्वभावों को क्यों धारण करता है? वह कौन-सा हेतु है, जिसके कारण वह कभी मनुष्य के शरीर में आकर वहाँ प्राप्त होनेवाली सामग्री के अनुसार सुख-दुख का वेदन करता है और कभी तिर्यंच के शरीर में आकर वहाँ प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अपना विकास करता ? कभी क्रोध के निमित्त मिलने पर वह क्रोधी होता है और कभी मान के निमित्त मिलने पर वह मानी होता है । यह तो माना नहीं जा सकता कि वर्तमान जीवन के सिवाय उसका पृथक् कोई व्यक्तित्व ही नहीं है, क्योंकि भूतचतुष्टय से अहंप्रत्ययवेद्य और ज्ञान दर्शनलक्षणवाले जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती । वैज्ञानिकों ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि का उपयोग करके अणुबम और हाइड्रोजन बम बनाया है। बहुत सम्भव है कि उनका वैज्ञानिक अनुसन्धान इसके आगे बहुत कुछ प्रगति करने में समर्थ हो, पर इन सब में जीवन डालने में उनका प्रयोग सफल होगा, यह साहस पूर्वक नहीं कहा जा सकता है। इसलिए तर्क और अनुभव यही मानने के लिए बाध्य करता है कि इस शरीर में पंचभूतों के योग्य सम्मिश्रण के सिवाय एक स्वतन्त्र और स्थायी व्यक्तित्व अवश्य विद्यमान है जो इन सब विविध अवस्थाओं और शील स्वभावों को धारण करता है। माता-पिता का रज-वीर्य या अन्य प्राकृतिक तथा दूसरे साधन शरीर की उत्पत्ति में सहायक हो सकते हैं, पर जिस कारण से यह जीव इन साधनों का उपयोग करने में समर्थ होता है और जो इसे अपने मूल स्वभाव से च्युत कर इन अवस्थाओं में रममाण कराता है, मानना पड़ता है कि वह इन सब दृश्य कारणों से भिन्न है । दर्शनकारों ने उसे ही 'कर्म' शब्द से सम्बोधित किया है; यह कर्मवाद की युक्ति है । इसी बात को स्पष्ट करते हुए पंचाध्यायीकार ने लिखा है
'एको हि श्रीमान् एको दरिद्र
इति च कर्मणः ।'
- पंचाध्यायी अ. २, श्लोक ५०
एक समृद्ध है और दूसरा निर्धन, इससे कर्म का अस्तित्व जाना जाता है ।
२. जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है
हम देख चुके हैं कि जीव क्या है और उसकी संसार में क्या अवस्था हो रही है। जीव में कर्म के निमित्त से राग, द्वेष आदि का प्रादुर्भाव होता है और इससे नये कर्म का बन्ध होता है। इनकी यह परम्परा अनादि है । इसी भाव को व्यक्त करते हुए 'पञ्चास्तिकाय' में लिखा है
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'जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदीसु गदी ॥ १२८ ॥
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