Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 22
________________ कर्ममीमांसा २१ प्रश्न यह है कि यह सब क्यों होता है? जीव को शरीर से अभिन्न मानने पर न तो बालक को दूध पीने की इच्छा हो सकती है, न वह पूर्व जन्म की स्मृति रख सकता है और न ही भूत-प्रेत योनि की विविध घटनाओं का सम्बन्ध ही बिठाया जा सकता है, किन्तु यह सब होता अवश्य है। इससे ज्ञात होता है कि शरीर से भिन्न कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व अवश्य है। जब हम किसी बालक को शिक्षा-दीक्षा से दीक्षित करते हैं, तब हमें यह देखना होता है कि उसकी स्वाभाविक रुचि क्या है। यदि उसकी इच्छा के अनुकूल सामग्री जुटा दी जाती है, तो उसकी उन्नति होने में देर नहीं लगती और यदि इच्छा के प्रतिकूल कार्य किया जाता है, तो उसे बड़ा निराश होना पड़ता है। विचारणीय यह है कि ऐसा क्यों होता है? वह कौन-सा तत्त्व है जो उससे ऐसा करता-कराता है? वैज्ञानिकों ने प्राणी की इस प्रवृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करने का प्रयत्न किया है। वे तत्काल जीव के अस्तित्व के विषय में एकमत भले ही न हो सके हों, पर इस तत्त्व की सत्ता को अस्वीकार करना उनकी शक्ति के बाहर है। यह बात हम प्रतिदिन के व्यवहार से देखते हैं कि जब कोई अन्य व्यक्ति हमें दुःख पहुँचाने की चेष्टा करता है, तब हमें क्रोध आता है और यदि कोई अपमान करना चाहता है, तो अहंकार से हमारा आत्मा अभिभूत हो जाता है। किन्तु जल्दी या देर में हम इस अवस्था से हटना चाहते हैं। प्रकृत में विचारणीय यह है कि इस प्रकार क्रोध करनेवाला या उससे हटनेवाला व्यक्ति कौन है? क्या ऐसी विलक्षण मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया किन्हीं जड़ तत्त्वों के सम्मिश्रण से सम्भव हो सकती है! 'हाँ' में इसका उत्तर देना कठिन है। हमने ऐसे बहुत से प्राणी देखे हैं, जिनका किसी प्रकार का अनिष्ट करने पर वे चिरकाल तक उसकी वासना से अभिभूत रहते हैं और कालान्तर में संयोग मिलने पर वे उसका बदला लेने से नहीं चूकते। हम यहाँ यह कह सकते हैं कि ऐसी वासना वर्तमान जीवन तक ही सीमित रहती है, जन्मान्तर में इसका अन्वय नहीं देखा जाता। किन्तु यदि जन्मान्तर की बात छोड़ भी दी जाय तो भी यह तो देखना ही होगा कि एक पर्याय के भीतर ही चिरकाल तक ऐसी वासना क्यों देखी जाती है? क्या बिना स्मृति के इस प्रकार की वासना का बना रहना सम्भव है? मालूम पड़ता है कि जड़ तत्त्वों से विलक्षण स्मृतिज्ञान का आधारभूत कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व अवश्य है। प्राचीन ऋषियों ने इसे ही 'जीव' शब्द से पुकारा है। प्राचीन साहित्य में इसके गुणों का ख्यापन अनेक प्रकार से किया गया है। नैयायिक, वैशेषिक दर्शन ने विश्लेषण करके संसारी जीव के बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार ये नौ विशेष गुण कल्पित किये हैं। इनकी तुलना हम जैनदर्शन के अनुसार कर्मनिमित्तक भावों से कर सकते हैं। जैन दर्शन में जीव की अनन्त अनुजीवी शक्तियाँ मानी गयी हैं। उदाहरणस्वरूप ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, सुख, क्षमा, मार्दव, भोग, उपभोग और वीर्य ये जीव के अनुजीवी गुण हैं। पुद्गलों के संयोग से न होकर ये आत्मा के स्वतन्त्र व्यक्तित्व को प्रख्यापित करते हैं। प्राचीन साहित्य में जीव का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए: 1 हेतु 'अहंप्रत्ययवेद्य' दिया जाता है, इसलिए यहाँ इस 'अहम' का ज्ञान कराना आवश्यक हो जाता है। यह तो हम प्रत्यक्ष में ही देखते हैं कि जहाँ हमारा निवास है, वहाँ हम अनेक पदार्थों से घिरे रहते हैं। उनमें से कुछ जड़ होते हैं और कुछ चेतन। ये प्रति दिन हमारे उपयोग में आते हैं। इसलिए इनकी हम सम्हाल करते हैं। पर इन्हें हम अपने शरीर या आत्मा से अधिक प्रिय नहीं मानते। शरीर-रक्षा का और मुख्यतः आत्मरक्षा का प्रश्न उपस्थित होने पर हम इन्हें त्याग देते हैं। शरीर की भी यही अवस्था होती है। जहाँ तक वर्तमान जीवन में रति रहती है या शरीर के रहते हुए किसी प्रकार का अनिष्ट नहीं प्रतीत होता, वहीं तक हम उसकी रक्षा करते हैं; अन्यथा उसका त्याग करने में भी हम संकोच नहीं करते। इस प्रकार वर्तमान जीवन की घटनाओं से हम देखते हैं कि इन विविध प्रकार के संयोग-वियोगों में भी हमारा 'अहम्' न तो भौतिक जगत् से सम्बन्ध रखता है और न बाह्य चेतन-जगत् से ही। उसकी सीमा इन सबसे परे अपने में सुरक्षित रहती है। बड़े-बड़े ज्ञानी मुनियों ने अनुभव द्वारा उस अहंप्रत्ययवेद्य तत्त्व का निर्णय किया है। उनकी स्वानुभव पूर्ण वाणी क्या कहती है, यह उन्हीं के शब्दों में सुनिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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