Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 20
________________ कर्ममीमांसा १६ शेष अमनस्क जीव हैं। अमनस्क जीव मात्र तिर्यंचयोनिवाले होते हैं, किन्तु समनस्क जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भागों में विभक्त हैं। इनमें से तिर्यंच और मनुष्य सब प्रत्यय के विषय हैं और शेष दो प्रकार के जीव आगम से जाने जाते हैं। जैनदर्शन में संसार के समस्त पदार्थ छह भागों में विभक्त किये गये हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनका विवेचन जैन आगम में विस्तार के साथ किया गया है। जीव के विषय में 'समयप्राभृत' में लिखा है 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥४६॥' जो रसरहित है, रूपरहित है, गन्धरहित है, इन्द्रियों के अगोचर है, चैतन्य गुणवाला है, शब्द रहित है, किसी चिह्न के द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता और जिसका आकार कहा नहीं जा सकता, वह जीव है। जीव का यह लक्षण त्रिकालान्वयी है। उसमें चेतन धर्म की विशेषता है। यह जीव का असाधारण धर्म है; क्योंकि चेतना की जीव के साथ समव्याप्ति है। जीव की पहिचान का यह प्रमुख चिह्न है। कुछ मतवादी चेतना की उत्पत्ति पृथिवी आदि भूतचतुष्टय के योग्य सम्मिश्रण का फल मानते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा गेहूँ आदि पदार्थों में मादकता का प्रादुर्भाव होता है, उसी प्रकार पृथिवी आदि के योग्य मिश्रण से चेतना की उत्पत्ति होती है। जब तक इनका योग्य सम्मिश्रण बना रहता है, तभी तक वहाँ चेतना वास करती है। इनका विघटन होने पर चेतना भी विघटित हो जाती है। न परलोक है, न कर्म है और न कर्म का फल है। बौद्धदर्शन भी जीव की पृथक् सत्ता स्वीकार नहीं करता। बुद्ध ने जिन दस बातों को अव्याकृत माना है, उनमें आत्मा शरीर से भिन्न है कि अभिन्न है, मृत्यु के बाद वह रहता है या नहीं रहता-ये प्रश्न भी सम्मिलित हैं। बौद्ध दर्शन में आत्मा को रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान का पुंज मात्र माना गया है। 'मिलिन्दपण्ह' भदन्त नागसेन ने राजा मिलिन्द के सामने आत्मस्वरूप का वर्णन एक बड़ी सुन्दर उपमा के द्वारा किया है। नागसेन ने राजा से पूछा कि इस दुपहरी की कड़कड़ाती धूप में जिस रथ पर सवार होकर आप इस स्थान पर पधारे हैं, उस रथ का 'इदमित्थं' वर्णन क्या आप कर सकते हैं? क्या दण्ड रथ है या अक्ष रथ है? राजा के निषेध करने पर फिर पूछा कि क्या चक्के रथ हैं या रस्सियाँ रथ हैं, लगाम रथ है या चाबुक रथ है? बार-बार निषेध करने पर नागसेन ने राजा से पूछा आखिर रथ क्या चीज है? अन्ततोगत्वा मिलिन्द को स्वीकार करना पड़ा कि दण्ड, चक्र आदि अवयवों के आधार पर केवल व्यवहार के लिए 'रथ' नाम दिया गया है; इन अवयवों को छोड़कर पृथक रूप से किसी अवयवी की सत्ता नहीं दीख पड़ती। तब नागसेन ने बतलाया कि ठीक यही दशा आत्मा की भी है। पंचस्कन्ध आदि अवयवों से भिन्न अवयवी के नितरां अगोचर होने के कारण इन अवयवों के आधार पर 'आत्मा' नाम केवल व्यवहार के लिए ही दिया गया है। आत्मा की वास्तविक सत्ता है ही नहीं। बौद्धदर्शन ने आत्मा की पृथक् सत्ता न मानकर भी निर्वाण और परलोक का निषेध नहीं किया है। प्रत्युत उनके चार आर्य-सत्यों का उपदेश इसी आधार पर स्थित है। इस प्रकार जीव के अस्तित्व को न माननेवाले या उसे संशय की दृष्टि से देखनेवाले मुख्य दर्शन दो हैं। शेष सभी पौर्वात्य दर्शनकारों ने उसकी स्वतन्त्र सत्ता किसी-न-किसी रूप में स्वीकार की है। इनमें से प्रथम मत बहुत प्राचीन है। लोक में इसकी चार्वाक या लौकायतिक इस नाम से प्रसिद्धि है। यह मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है, इसलिए यह अतीन्द्रिय जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य को तथा परलोक और मुक्ति आदि तत्त्वों को स्वीकार नहीं करता। किन्तु विचार करने पर ज्ञात होता है कि जीव पृथिवी आदि के योग्य सम्मिश्रण का फल नहीं है, क्योंकि पृथिवी आदि प्रत्येक तत्त्व में चेतना गुण की उपलब्धि नहीं होती, इसलिए उन सबके सम्मिक्षण से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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