Book Title: Leshya kosha Part 1
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 10
________________ बाद में हमें ऐसा अनुभव हुआ कि इतने ग्रन्थों से इतने अधिक विषयोपविषयों के पाठ लिखलिख कर संकचन करना श्रम व समय साध्य नहीं होगा। अतः हमने प द्धति का अवलंबन किया। कतरन के लिए हमने प्रत्येक ग्रन्थ की दो-दो प्रकाशित प्रतियाँ संग्रह की। एक प्रति से सामने के पृष्ठ के पाठों का तथा दूसरी प्रति से उसी पृष्ट की पीठ पर छपे हुए पाठों का कतरन कर संकलन किया। प्रत्येक विषय-उपविषय के लिये हमने अलग-अलग फाइलें बनाई । कतरन के साथ-साथ विषयानुसार फाइल करने का कार्य भी होता रहा । इस पद्धति को अपनाने से पाठ-संकलन में यथेष्ट गति आ गई और कार्य आशा के विपरीत बहुत कम समय में ही सम्पन्न हो गया। कतरन व फाइल करने का कार्य पूरा होने के बाद हमने संकलित विषयों में से किसी एक विषय के पाठों का सम्पादन करने का विचार किया। सम्पादन का पहला विषय हमने 'नारको जीव' चुना था क्योंकि जीव दण्डक में इसका प्रथम स्थान है। सम्पादन का काम बहुत-कुछ आगे बढ़ चुका था तथा 'साप्ताहिक जैन भारती' में क्रमशः प्रकाशित भी हो रहा था लेकिन बंधुओं का उपालम्भ आया कि प्रथम कार्य का विषय अच्छा नहीं चुना गया। उनका सुझाव रहा कि 'नारकी जीव' को छोड़ कर कोई दूसरा विषय लो। अतः इस विषय को अधूरा छोड़कर हमने किसी दूसरे विशिष्ट दार्शनिक व पारिभाषिक महत्त्व के विषय का चयन करने का विचार किया। इस चयन में हमारी दृष्टि 'लेश्या' पर केन्द्रित हुई क्योंकि यह जैन दर्शन का एक रहस्यमय विषय है तथा जिसकी व्याख्या कोई भी प्राचीन आचार्य भलीभाँति असंदिग्ध रूप में नहीं कर सके हैं। इसीलिए हमने सम्पादन के लिए 'लेश्या' विषय को ग्रहण किया । सम्पादन में निम्नलिखित तीन बातों को हमने आधार माना है :१. पाठों का मिलान, २. विषय के उपविषयों का वर्गीकरण तथा ३. हिन्दी अनुवाद । ३२ आगमों से संकलित पाठों के मिलान के लिए हमने तीन मुद्रित प्रतियों की सहायता ली है जिनमें एक 'सुन्तागमे' को लिया तथा बाकी दो अन्य प्रतियाँ ली। इन दोनों प्रतियों में से एक को हमने मुख्य माना। इन तीनों प्रतियों में यदि कहीं कोई पाठान्तर मिला तो साधारणतः हमने मुख्य प्रति को प्रधानता दी है। यह मुख्य प्रति संकलन-सम्पादन अनुसंधान में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची में प्रति 'क' के रूप में उल्लिखित है। यदि कोई विशिष्ट पाठान्तर मिला तो उसे शब्द के बाद ही कोष्ठक में दे दिया है। संदर्भ सब प्रति 'क' से दिये गये हैं तथा पृष्ठ संख्या 'सुत्तागमे से दी गयी है। [ 9 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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