Book Title: Kshama Rushi Author(s): Lalitvijay Publisher: Atmtilak Granth Society View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मापराधक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् । "सव्वो पुवकयाणं कम्माण पावए फलविवागं। अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमित्तं परो होइ ॥" - इस महावाक्यरूप दृढ रज्जुका आलंबन लेकर उस आगमैषी भद्रने अपने मनको शोक पिशाचसे भली भांति बचा लिया। कर्मका फल उसके ख्यालमें ठीक तौर पर आने लगा। शनैः शनैः सांसारिक वासनाजालसे उसकी अभिरुचि कमती होने लगी। अनादिकालीन मोह मेघोंके पटल झांखे पड़ने लगे । अनादि काल आच्छादित आत्मस्वरूपका दर्शन होने के कारण वह प्रसन्न होने लगा। ऐसे अप्राप्तपूर्व प्रशान्त समयमें वह एक अपहृतशिरोभार-भारवाहक की तरह 'हासू ?' कह कर निकटवर्ति किसी तरु की शीतल और सघन छाया में बैठ गया और दोनों हाथ जोड़कर बोलने लगा-ओ परमा For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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