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( ४४) इन सर्व कार्यों में फतेह मंद होते हुए क्षमाऋषि'जीने विचार किया कि-यह सब प्रभाव गुरु महाराजका है।
"सेव्यः सदा श्री गुरुकल्पपादपः" “मुझे अब उचित है कि-उभयलोकके धर्म सार्थवाह गुरुमहाराजकी सेवा शुश्रूषा करके अपने स्वल्प जीवनको सफल बना लूं । यतोऽ वादि पूर्वर्षिभिः । दिवो दिवाकरो हन्ति, रात्रौ जैवातकस्तमः। हार्द तयोरसाध्यं तु, गुरुरेव न चापरः॥१॥ दिनादौ श्रीगुरोनाम मन्त्रमष्टोत्तरं शतम् । जप्त्वान्यमन्त्रस्मरणं, कर्तव्य सिद्धिमिच्छता २ क्रुद्धो गुरुर्वदति यानि वांसि शिष्ये । मध्यान्हसूर्य इव तानि दहन्ति देहम् ।। "तान्येव कालपरिणामसुखावहानि । पश्चाद्भवन्ति कमलाकरशीतलानि ॥३॥
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