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श्री आत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटी पु.नं. १८.
क्षमा ऋषि
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लेखकपं. श्रीमान् ललित विजयजी महाराज.
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श्री आत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटी पुस्तक नं.१८.
श्री मद्विजयानन्द सूरीश्वर वल्लभपादपद्मेभ्यो नमः
क्षमा ऋषि.
लेखक, श्री वल्लभविजयजी महाराजके शिष्यपं. श्रीमान् ललित विजयजी महाराज. सद्गुणानुरागी श्रीमान् कर्पूर विजयजी महाराजके
उपदेश द्वारा मिली हुई सहायतासे
प्रकाशकश्रीआत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटी,
शा. सदुभाई तलकचंद, रतनपोल अमदाबाद.
प्रथमावृत्ति १०००. वीर नि. २४४७] [वि. सं. १९७७,
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मुद्रक, चिंतामण सखाराम देवळे, मुंबई वैभव प्रेस, सर्व्हट्स ऑफ इंडिया सोसायटीज होम, सँढर्ट रोड, गिरगांव-मुंबई.:
प्रकाशक,
शा. सदुभाई तलकचंद, सादड़ी ( मारवाड़ ) निवासी शा. सरदारमल हर्षचंद
जीकी आर्थिक सहायसे ।
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DR
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क्षमा ऋषि.
पहला परिच्छेद.
वैराग्य प्राप्ति. ग्यारहवीं सदी में अनेक धर्मात्मा-धर्मधुरधर-शासनप्रभावक पुरुषरत्न इस रत्नप्रसू पृथ्वीको अलंकृत करके परोपकारी जीवनद्वारा विश्वोपजीवी अमरनामके धारक हो चुके हैं । जिनके विनश्वर शरीरोंके आज न होने पर भी उनके विश्वजनीन-लोकप्रियआबालगोपाल-विख्यात विशद कीर्तिका गान कानोंको पवित्र और आप्यायित, कर रहा है । योगियोंमें ललामभूत-त्यागियों में अग्रगण्य-चारित्रपात्रमें चूडामणि-श्रीमान्-'यशो
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(२)
भद्र-सूरिजी महाराज का पुनीत जीवनचरित्र लिखकर आज हम उनके शिष्य-संप्रदायमें से एक भावितात्मा-तपस्वी अणगार 'श्रीक्षमा ऋषिजी' का चरित्र लिखनेका उपक्रम करते हैं-प्रसिद्ध है कि
" महात्मनां कीर्तनं हि, श्रेयो
निश्रेयसास्पदम् ” मेवाड़ के मुख्य और सुप्रसिद्ध शहर चित्तोके पास बडगाम नामक एक गांव था, वहां पूर्वोपार्जित लाभान्तरायके वशसे धनरहित “बोहा" नामक एक गरीब मनुष्य धर्मकर्मपरायण स्वल्पलाभसे भी संतुष्ट वृत्तिक अपने मानवजीवनको सुखसे व्यतीत कर रहा था, चित्तोड़के बाजारमें, वह घी, तेल, बेचकर अपना निर्वाह किया करता था । एक 'समयका जिकर है कि वह पांच रुपयेका घी
(१) अभी मुद्रित नहीं हुआ !
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( ३ )
लेकर अपने गांव से चित्तोड़ तर्फ आ रहा था इतनेमें दैवयोग पैर फिसल जानेसे वह गिर पड़ा, बी जमीनमें मिलगया । " दैवं दुर्बलघातकं
वह विचारा क्षते क्षारवत् उस नयी व्याधिसे और भी तकलीफ में आ पड़ा ।
दयालु लोगोंको उसकी उस हालत पर दया आई, उन्होंने उसे पांच रुपये देकर फिर व्यापारमें जोड़ा । वह बिचारा उन पाँच रुपयोंका घी खरीदकर सिर पर कुप्पा उठाये चड़गाम जा रहा था, कि - फिर पैर फिसल जानेसे उसका घी नष्ट होगया । उस वक्त उसे यद्यपि असह्य दुःख होना चाहिये था तथापि उसने मान लिया कि इसमें दुःख और अफसोस जाहिर करनेसे क्या होगा ? किसी मनुष्यने तो मुझे इस आपत्तिके गर्त्तमें नहीं फेंका-किन्तु -
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आत्मापराधक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् । "सव्वो पुवकयाणं कम्माण पावए फलविवागं। अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमित्तं परो होइ ॥" - इस महावाक्यरूप दृढ रज्जुका आलंबन लेकर उस आगमैषी भद्रने अपने मनको शोक पिशाचसे भली भांति बचा लिया। कर्मका फल उसके ख्यालमें ठीक तौर पर आने लगा। शनैः शनैः सांसारिक वासनाजालसे उसकी अभिरुचि कमती होने लगी। अनादिकालीन मोह मेघोंके पटल झांखे पड़ने लगे । अनादि काल आच्छादित आत्मस्वरूपका दर्शन होने के कारण वह प्रसन्न होने लगा।
ऐसे अप्राप्तपूर्व प्रशान्त समयमें वह एक अपहृतशिरोभार-भारवाहक की तरह 'हासू ?' कह कर निकटवर्ति किसी तरु की शीतल और सघन छाया में बैठ गया और दोनों हाथ जोड़कर बोलने लगा-ओ परमा
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( ५ )
त्मन ! विश्ववत्सल ! करुणासागर ! दीनबन्धो ! तू सत्य है । तेरे वचन अबाधित हैं । संसार दुःखसागर है - हे तात ! तू वीतदोष है, मैं दोषाकर हूं । तू संसारसिन्धुसे तीर्ण और तारक है, मैं आकंठ डूबा पड़ा हूं । हे सद्गुण ! हे विषयजीपक ! तूने मुझे जो अखुद खजाना सोंपा था। मैने उसका कुछ भी उपयोग, या उपभोग न किया, उसे अंतवति चोरोंने लूट खाया | इस पारावारके तैरनेको आप जो जहाज देगये थे उसमें पानी भर गया, अब वह डूबा कि डूबा है, उसके संचालक मुझे निराधार छोड़कर चले जा रहे हैं, हे आश्रितवत्सल ! मुझे बचाले । देवेंद्रवन्द्य | विदिताखिलवस्तुसार ।। " संसारतारकविभो ! भुवनाधिनाथ ! | त्रायस्व देव ! करुणाहृद् ! मां पुनीहि, सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥
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"हे प्रभो, मुझे ऐसी शक्ति दे, जिससे मेरा दुर्बल हृदय निःस्वार्थ और निरपेक्ष हो जावे । मुझे वह परमार्थ बतला दे, जिससे निःश्रेय प्राप्ति हो। मैं उस सर्व श्रेष्ठ ज्ञानको प्राप्त करना चाहता हूँ जिसके द्वारा तेरा यथार्थ रूप जान सकूँ । मुझे वह सामर्थ्य दे, जिससे संसारके तुच्छ धनाधिकारियों के आगे न झक कर दीन दुखियोंको तेरी सेवामें हाथ पकड़ कर ला सकुँ । मैं उस शुद्ध बुद्धिको चाहता हूँ, जिसके सहारेसे तेरे प्रेमके बाधक सहजही में हट जावें । हे नाथ, मुझे वह ऐश्वर्य दे; कि जिससे मैं अपना पराया भूलकर निरन्तर विश्व सेवा ही किया करूं। मेरे शिथिल शरीरमें उस बल का संचार कर दे, कि मैं वासना की अजेय दुर्गमालाको क्षण भरमें कुचल डालूं। मेरा संकुचित हृदय इतना विशाल कर दे, कि मैं उसमें तेरे विराट रूपका ध्यान कर सकूँ। मेरी चर्मचक्षुओंमें वह जादू भर
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दे, कि उनसे तेरे प्रेमके सदा आंसु ही बहा करें और जिन्हें देखकर निर्दय शत्रु भी वशीभूत हो जावें। क्या मुझे भूल गये! हे भक्तबत्सल ! मुझे ऐसी स्मरणशक्ति प्रदान कर दे जिससे मैं तुझे पल भर भी न भूलूं और अपने नित्यके प्रत्येक कार्यको विना तेरी साक्षीके न करूं । मुझे वह अहंकार चाहिये कि 'मैं तेरा हूं और तू मेरा है।' अय मेरे प्रियतम ! सबसे बड़ा वर, जिसकी मैं तुझसे याचना करना चाहता हूँ, वह यह है कि तू मुझे अपना निष्काम तथा बिशुद्ध प्रेम दे दे और वह प्रेम तेरे प्रेमही के लिये हो ।” ( तरंगिणी ) ___ अब बोहेका मन सांसारिक प्रपंचोंसे विरक्त हुआ, उसे अव विषमय विषयोंसे, केश, धनसंपदासे बंधनभूत बंधुजनोंसे नफरत आने लगी । कोई संसारतारक-परमार्थ बंधु-योगीराज नजर आय तो उनके चरणोंमें निवास कर अपने शेष तुच्छ जीवन
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की सफलता करनका उसने दृढ संकल्प कर लिया। जैसे हंस मानस सरोवरको, योगी ब्रह्मको, कामी कामिनीको, वत्स धेनुको चाहे वैसे ही अब वह अपने उद्धारक गुरुकी तलायशमें ग्रामानुग्राम फिरने लगा। प्रसिद्ध है कि-"सत्पुरुषोंको उनका आराधन किया धर्म ही सहायक होता है” आचार्य श्रीयशोभद्र सूरिजीकी असीम कीर्ति उसके सुनने में आई । बोहा-मुमुक्षु भावसे उस सूरिशेखरके पास पहुंचा । गुरुमहाराजके चरणों में रह कर उसने अपनी आत्माको चारित्र धर्मकी योग्यताका पात्र बनाना प्रारंभ किया। तुलना करने पर जब उस भव्यात्माको निश्चय हुआ के-मैं इन महापुरुषोंके सौंपे हुए महाव्रतोंके भारको उठा सकूँगा और उठाये हुए को ठीक मँजल सर पहुँचा सकूँगा, तब उसने गृहस्थाश्रमको छोड़ कर पाँच महाव्रतरूप यतिधर्मको अंगीकार किया।
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(९) दूसरा परिच्छेद।
आशातनाका फल। गुरुमहाराजने उसके अंतःकरणको मैत्रीप्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ इन चार भावनाओंसे वासित किया। पांच समिति, तीन गुप्ति यह आठ प्रवचन मातारूप चारित्र पात्र बना या और-ग्रहण आसेवन शिक्षामें कुशल बना दिया। दीक्षा लेकर वह भाग्यशाली निरतिचार चारित्र पालने लगा। गुरु महाराजकी शिक्षाओंको वह अपने जीवितसे भी अधिक प्रिय समझकर उनका पालन करने लगा। दशविध यति धर्मको तो उसने अपना सर्वस्व मान लिया था । मासखमण आदि अनेक तपस्याओंसे वह अपनी आत्माको निर्मल करने लगा। एक वक्त उस पुण्यधन
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(१०) चारित्रचूडामणि शिष्यने नम्रता पूर्वक गुरुमहाराजको प्रार्थना की । हे देव ! आपके चरणोंका शरण लेकर मैंने वैराग्यसे दीक्षा ली है, तो आज मेरे मनमें एक ऐसा मनोरथ उत्पन्न हुआ है कि मैं थोड़े ही समयमें मेरा कार्य सिद्ध कर लूं। और उस कार्यको मैं आपश्रीजी की पूर्ण प्रसन्नता पूर्वक ही करना चाहता हूं। इस लिये उस मेरे मनोरथ सुरतरुको सफल कर और देव मनुष्य या तिर्थक्कृत उपसर्गौको सहन करता हुआ उत्कट तपस्यासे कर्माशोंका विलय करके मेरे कर्मभारसे भारी बनी हुई आत्मा को हलका निर्लेप करूं,। इस मेरे निर्धारित कार्यमें यदि आप देवस्वरूप गुरुमहाराज खुशी होवें तो मैं कहीं जाकर अपना कार्य पार पहूँचा सकूँ, उस मेरे विहारोचित स्थलका भी आप श्री ही आदेश फरमावें।
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(११) आप श्रीजीका बताया स्थान मुझे पूर्ण कल्याण साधन होगा इसमें जरा मात्र भी संदेह नहीं । गुरुमहाराजने उस निकट भवी शिष्यरत्नकी प्रार्थनाको ध्यानके साथ सुना और जवाबमें कृपालु भावनासे फरमाया कि -" यदि तुम्हारी ऐसी ही तीव्र इच्छा है तो अवंती तर्फ जाओ तुम्हारा धर्ममनोरथ सिद्ध होगा"
आत्मकल्याणकी विशुद्ध तीव्र भावनासे उस मुनिको तीर्थस्वरूप श्रीसंघने भी पुनः पुनः आशीर्वाद दिया । अनेकानेक धार्मिक शिक्षा वचनोंसे उनके पवित्र हृदयको अधिकाधिक उत्साहित किया । मुनिजी प्रस्थित होकर धाममउद्र गामके बाहिर किसी तालावके किनारे पर एकान्त जगहमें रह ध्यान करने लगे। एकदफा ब्राह्मणोंके युवक लड़के खेलते हुए
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(१२)
वहां आ पहुँचे और मुनिको देखकर खिड़ खिड़ हंसते हुए बोले " देखो यह क्या हूंठ सा खड़ा है ? इस तरह हँसी कर उन उन्मत्त अभिमानी और, निर्विवेकी युवकोंने उस शान्तात्मा जगतके निष्कारणबन्धु तपस्वी मुनिको मारपीट करने में भी कसर न रक्खी। इतने पर भी सत्यक्षमा सागर मुनिने रंचकमात्र भी कोधको अवकाश न देकर शुभ भावना रूपजलसे अपने क्षमा रूप कल्पतरुको सविशेष सिंचन करना शुरू किया। परन्तु निहतुक-जगत्वत्सल मुनिराजको सताना एक सरासर अन्याय बल्कि-घोरअधर्म था, "देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो। गुणाः पूजास्थानं न च तेषु लिङ्गन च वयः। __ मुनिकी कदर्थना होती देखकर तालावके अधिष्ठायक देव कोपायमान हुए। उन्होंने
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(१३) सोचा पुण्ययोगसे इन महात्माका विनाबुलाये यहां आना हुआ है और ये दुष्ट लोग गुण अवगुणका विचार न करके पापपुण्यको भी कुछ न गिनकर स्वर्ग नर्ककी भी कुछ दरकार न रखते हुए मदान्ध होकर हमारे पूजनीय अतिथिका पराभव कर रहे हैं तो ऐसा अन्याय हम कैसे देख सके ? संसारमें दुष्टको शिक्षा देना और शिष्टका सन्मान करना यह एक उत्तम न्यायमार्ग है। इससे धर्मका सत्कार और अधर्मका तिरस्कार होता है । इस लिये शीघ्र ही इन उद्धतोंको इनके कर्मका फल देना ही चाहिये ! __ यह सोचकर देवताने उनकी मुशकें बांधली
और खूब मारा, दुर्विनीतोंका हाल बहुत बुरा हुआ । बहुत देरतक भी जब वे घरोंमें न जा सके तो उनके मातपिता वगैरह उन्हें ढूंढते हुए वहाँ आये, देखा तो मुंहसे रुधिर प्रवाह
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( १४ )
निकल रहा है, वेदनाकान्त पशुओंकी तरह जमीन पर लेट रहे हैं, “कोई दयालु हमें बचा ओं कोई दनि बन्धु हमारी रक्षा करो। हम मरते हैं, हमें प्राणदान दो। हम अशरण कोई समर्थ अपने सामर्थ्यका सदुपयोग करो और हम पाशबद्धोंको मुक्त करो। ओ प्रभु ! ओ परमेश्वर ! हे शंभु ! हे मुरारि ! हे ज्वालामुखि ! हे माता भवानि ! हे कालि ! हे चंडिका ! हे गजानन ! हे गणेश ! आप हमारा रक्षण करो पालन करो ।" इस तरह विविध विलाप करते हुए उनको देखकर स्वजनोंको अतिशय दया आई परंतु कर क्या सक्ते थे ? शुभाशुभानि कर्माणि, स्वयं कुर्वन्ति देहिनः । स्वयमेवोपकुर्वन्ति सुखानि च दुःखानि च ॥" उनको निश्चय हुआ कि इन दुर्विदग्धोंने इस महात्मा तपस्वीको सताया होगा और तपस्वीने अपने तप तेजसे इनको बांधा है । वे सब
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(१५)
दीनता दिखाते हुए मुनिराजके पैरोंमें पड़े और अपने अपराधी क्षमा मांगने लगे, आगेको ऐसा न होगा इत्यादि अनेक मिन्नतें कीं। इतनेमें मुनिश्री भी “नमो अरिहंताणं"कहकर ध्यान मुक्त हुए। ___ इधर उस देवताने एक लड़केके शरीर में प्रवेश करके कहा सुनो-इन दुष्टोंकी दुष्टता तर्फ देखनेसे तो मन यही चाहता है कि इनकी दया न की जावे, इनकी तमाम जिंदगी ऐसे ही दुःखमें निकलने देवें, परंतु तुम्हारी करुणासे कहा जाता है कि, इन्होंने हमारे अतिथि हमारे पूज्य हमारे ही नहीं बल्कि संसारभरके पूज्यको इन नादानोंने नाहक सताया । साधुमहात्मा जो दुनियाका भला करनेमें कटिबद्ध हैं, जिनके विषयमें निःसंदेह कहा जाता है कि" सरवर-तरुवर-संतजन चौथा वरसे मेह। परमारथके कारणे चारों धरे सनेह " ॥१॥
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हर एक मनुष्य जब न्यायमार्गका परित्याग कर अन्याय मार्ग पर सवार होता है तो उसे आपत्तिका बोझ उठना ही पड़ता है, इसमें संदेह ही क्या ? " सन्मार्गस्वलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि"।
क्यों इन्होंने धर्ममूर्ति जगतवत्सल मुनिको सताया ? क्यों अनार्योंने ऐसा अकृत्य आचरण किया ? क्यों ये दीवा लेकर कूएमें पड़े ? अगर इन्होंने जगत्पूज्य समतासागर साधु महाराज पर ही अपनी क्रूरताका उपयोग कर अपनी बहादुरी बतलाई है तो अब विषम बिपाक भी इन्हें ही भोगने दो। किसी भी मतके नेताओंसे, संप्रदायके संचालकोंसे, धर्मके प्रवर्तकोंसे, मजहबके दरवेशोंसे, आम्नायके साधुओंसे धर्मका सिद्धान्त पूछोगे तो वे धर्मका महिमा बतलाते हुए यही कहेंगे कि
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(१७) "धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः" तो वह धर्म कहां है ? धर्म कोई दृश्य वस्तु नहीं, धर्म कोई किसी दुकानका सौदा नहीं, धर्म किसी खेतका पाक-या बाग बगीचे का फल फूल भी नहीं, धर्म इन संसारत्यागी ऋषि-तपस्वी-मुनिवरोंकी चरण सेवाका नाम है। धमें इन योगिपुरुषों को यथोचित अन्न वस्त्र पात्र भैषज्य वसति प्रमुखके देनेका नाम है । धर्म इनके नाममंत्रके जापका नाम है। जैसे एक रसायनका बिन्दु भी कई मण लोहेको सुवर्ण बना देता है ऐसे ही इन त्यागियोंकी क्षणमात्रकी सेवा-संगति भी मनुष्यके जीवनको उच्च बना देती है, साधुनाम ही साधु तो फिर कसर किस बातकी ? " साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः॥१॥
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(१८) सुनो ? हम तुमको तुम्हारे घरकी ही सुनाते हैं श्रीमद्रामचंद्रजी जब वनवासमें थे, तब उनको “गुह" नामक एक मलाह मिला, उपकार बुद्धिसे श्रीरामचंद्रजीने उसको उपदेश दिया । वह उस सुकर्मयोगसे प्राप्य कर्णप्रिय हृदयाल्हादक उपदेशामृतसे तृप्त हुआ अपने उपकारी श्रीरघुपति रामचंद्रका पवित्र नामस्मरण करता करता अपने स्थान पर चला गया।
कोई एक ऐसा सुप्रसंग आया कि श्री मदरामचद्रंजी उस नदीके किनारे आ पहुँचे कि जिस नदीसे वह मलाह लोगोंको उतारा करता था । दाशरथीको बड़ेभाव और प्रेमसे उसने नाव में बैठाया और क्षणभरमें सामने कांठे जा उतारा! रामचंद्रजीने शिष्टाचारके अनुसार उसको कुछ द्रव्य देना चाहा परन्तु
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(१९)
उसने वह अपना मेहनताना भी न लेकर एक प्रार्थना वाक्य कह सुनाया
ख्यातस्त्वं भवसागरस्य __ दयया पारप्रदोऽहं तथा, लोकानां सरितः कुटुम्बभरण
व्याजेन सन्तारकः । युक्तं नापितधावकादिवदतः
कैवर्तयोनौ मिथो, नार्थादानमिमं जनं तव पुन
घट्टागतं तारयेः ॥१॥ जगत् जानता है कि-तुम दयाभावसे अपने आश्रितोंको संसारसे पार करते हो । मैं अपनी उदर पूर्तिके लिये और कुटुंब निर्वाहके लिये मेरे निकट आये हुए लोगोंको इस नदीसे पार करता हूं। वस्तुतः देखा जाय
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( २० )
तो अपने दोनोंका पेशा एक ही है । अपने दोनों का एक व्यापार होनेसे दोनों ही एक सरखे हैं, जातिभाई नहीं परन्तु धंधे से समान हैं। तुम भी मलाह और मैं भी मलाह, तुम्हारा कृत्य संसार समुद्रसे तारनेका है तो मेरा काम इस नदीसे तारनेका है, जब कि आप और मैं दोनों एक क्रियाके करनेवाले हैं तो फिर मेहनताना काहें का ? एक धोबी दूसरे धोबीसे कपड़े धुलाकर एकनाई दूसरेनाईसे हजामत करा कर मजदूरी देता कमी देखा है या सुना है ? न्यायकी बात सिर्फ यह ही है कि -आज आप फिरते फिरते मेरे घाट पर आ चढे हैं मैंने आपको तारा जब कभी भटकता भटकता मैं तुम्हारे घाट पर आ पहुंचूं तो आपने मुझे भी पार कर देना !! चाह ! शाबास !! शाबास !! सोचना चाहिये कि श्रीमदूरामचंद्रजीके दर्शनसे जब एक
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(२१) अदनासे अदना आदमी इतनी योग्यता रखनेका अधिकारी बना तो अफसोस है ! तुमउत्तम जातिवाले-वेदिये पशुओं पर कि जिनको ऐसे उत्तम तपस्वी पर हाथ उठाना सूझा!!! धिक्कार है ऐसी बुद्धिको ! सहस्रशः धिक्कार है ऐसी समझको, और लाख लानत है ऐसे मिथ्याभिमानियोंके इस दुष्ट पौरुषको ! जाओ मैं इन जैसा नहीं बनता क्षमा करता हूं इन दुर्विनीतोंको, यदि ये अपने जीवनको चाहते हैं तो इस महात्माका चरणोदक पीवें उससे इनका संकट दूर होगा और अगर अपना भला चाहते हो तो इस बातकी श्रद्धा रक्खो कि-मुनौ दृष्टे ध्रुवा सिद्धिः गौर करोकि धर्म तीर्थके समान प्रभुके साक्षा
प्रतिनिधि श्री साधुमहापुरुषोंको देख कर जिसका हृदय कोमल न हुआ वह कैसे अपना यह लोक और परलोक सुधार सक्ता है ?
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(२२)
परंतु इन कम नसीबोंको ठंडे पानीसे दाह हुआ यह भी इनके दैवका कोप नहीं तो और क्या ? अस्तु अन्तिम शिक्षामात्र इतनी ही है कि-गुणवानोंकी उपासना करो। जिससे तुम अपने मनुष्य भवको सफल कर सको। देवताके इन शिक्षावाक्योंका रटन करते हुए और मुनिपुंगव क्षमाऋषिके सद्गुणोंका महान् आदर करते हुए उन ब्राह्मणोंने तपस्वीके चरणोंका स्नात्र जल पिया, तत्काल वे युवक बंधनोंसे मुक्त हुए । वेदना रहित हुए । और यावज्जीव तक ऐसे ऋषिवरोंकी सच्ची उपासना करनेका दृढ निश्चय करके अपने स्थान पर चले गये । इतना पक्ष करनेवाले उस देवपर और निष्कारण ताड़न करनेवाले उन ब्राह्मणों पर मुनिकी मनोवृत्ति समान थी उन युवकोंके मातापिता स्वजन संबंधिलोगोंने महात्माके आगे बहुत कुछ रुपया पैसा भेट
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किया परंतु त्यागी महात्माके किस कामका था? उन लोगोंने उस धनको चैत्योंके उद्धारमें खर्च दिया, हम इस मुनिराजको 'बोहा ऋषि'के नामसे न लिखते हुए जो 'क्षमा ऋषि' के नामसे लिखते हैं वह इस महर्षिका सुप्रसिद्ध नाम यहाँ पर ही और सो भी इस उपसर्गके सहन करनेसे पड़ा है।
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(२४) तीसरा परिच्छेद
घोर अभिग्रह क्षमापारावार-मुनिराज वंहाँसे विहार करके एक शून्यवनकी गुफामें जाकर रहने लगे। इस गिरिगुफामें निवास करते हुए इस महात्माने ऐसे २ घोर अभिग्रह धारण किये कि जो पूरे होने बड़े कठिन थे। परन्तु
'तपसा किं न सिध्यति ?' आत्मबली महापुरुषके प्रभावसे घोरातिधोर नियम भी सुसाध्यसे होने लगे ।
मुनिराजने पहला अभिग्रह इस तरहका किया कि-" स्नान करके उठा हुआ, केश जिसके खुले हैं, मनमें जिसके किसी किसमका दुःख है, ऐसा 'कृष्ण' (जो कि धारा नरेशका कर्मचारी था) यदि इक्कीसमंडे देवे
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( २५ )
तो आहार लेना " वरना कुछ नहीं लेना । यह अभिग्रह इस तरहसे पूर्ण हुआ कि - हजार हाथियोंका मालिक सिन्धुल राजा जो कि उस समय धारानगरीका मालिक था उससे नाराज होकर 'कृष्ण' किसी हलवाईकी दुकान पर बैठा हुआ था तत्काल स्नान किया हुआ होनेसे केश भी उसके खुले थे, उसने ऋषिको बुलाया और भाले के अग्र भाग में परोकर मंडे दिये । ऋषि राजने जब गिनती की तो पूरे २१ निकले । बस आजका दिन उसका भी शुभ था जो मुनिराजके पारणेमें उसकी दी हुई वस्तु काम आ गई |
घोर तपस्वी मुनिराज के इस प्रथम अभिग्रहमें तीन महीने और आठ दिनोंकी तपस्या हुई । मुनिके अभिग्रहकी बात सुनकर कृष्णको बड़ा आश्चर्य और आदर हुआ । मुनिश्रीजीके
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(२६)
प्रयाण करने पर वह भव्यात्मा भी उनके पछेि ही पीछे चलपड़ा।
उसने मुनिराजसे पूछा प्रभो ! मेरा आयु ! अब कितना बाकी है ! क्षमाऋषिजीने अपने ज्ञानमें उपयोग देकर कहा तुम्हारा आयु:सिर्फ छः महीनेका बाकी है। कृष्णको बड़ा पथा. त्ताप और भय पैदा हुआ उसने कहा-प्रभो ! मैं इतने स्वल्प जीवन में क्या कर सकूँगा ? मुनिजीने कहा-भाई । डरनेसे भी क्या बन सक्ता है ? कोटि उपाय करने पर भी आयु तो बढ़ नहीं सक्ता, अब बात यह रही कि तुम वास्तविक रीतिसे कल्याणके ही अर्थी हो तो संसारके बंधनोंको त्याग कर आत्मावलंबी बनो । कृष्ण बोला-कृपालु ! आपका फरमान सत्य है परन्तु छः महीनेके आयुमें मैं कैसे आत्मसाधन कर सकूँगा? भगवान तपस्वीबोले-मनुष्य अपनी आत्माको सर्वथा बल
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( २७) वान् कर लेवे तो स्वल्प समयमें वह अपना स्वार्थ साध लेता है। "एकदिवसं पिजीवो,पवज्जं पालिउं अणन्नमणो जइ वि न जाइ मुक्खं, अवस्सवेमाणियो होइ।" युवान अवस्थाके प्रारंभमें नलराजाके भतीजेने जब गुरु महाराजसे पूछा कि-महाराज! मेरा आयु कितना शेष है ? तो मुनिराजने पांच दिनकी जिंदगी अवशिष्ट बतलाई, उसने चारित्र लेकर उतने समयमें भी कार्य साधलिया। राजा हरवाहनकी उमर जब नौप हरकी बाकी थी तब उसने गुरु उपदेशसे चारित्र ग्रहण कर आत्मकल्याण कर लिया। गई सो गई अब राख रही को। सावधान हो जाओ। घबरानेसे कुछ न बनेगा। तावद् भयेन भेतव्यं, यावदनागतं भयं । . आगतं तु भयं दृष्ट्वा, यतितव्यं तदत्यये ॥
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(२८)
यह सुनकर कृष्णने गुरुमहाराजके पास दीक्षा स्वीकार करली, अब तपस्वी गुरुके चरणोंमें रहकर कृष्णर्षिभी अनेक प्रकारकी तपस्या करने लगा। छः मासका विशुद्ध चारित्र पालकर कृष्णर्षिजी स्वर्ग सुखोंके भोगी हुए। __ इधर-क्षमाऋषिजीने फिर ऐसा नियम धारण किया कि-सिंधुलराजाका मदोन्मत्त हाथी मकानोंको गिराता हुआ-महावतोंके अंकुश को कुछ न गिनता हुआ लोगोंके देखते २ पांच लड्ड अपनी सूंडसे उठाकर देवे तो मेरे पारणा करना" इस अभिग्रहकी पूर्तिमें मुनिराजको पांच महीने और ग्यारह दिन तपस्या करनी पड़ी।यह अभिग्रह इसतरह पूर्ण हुआ-एकदिन सिंधुल राजाका हाथी मदके वशसे आलानोंको तोड़कर दौड़ा जारहा था,। रास्ते जाते क्षमा मुनिजीकी दृष्टि उस हाथी पर
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( २९ )
पड़ी । हाथी तत्काल शान्त हो गया । बाजारमें किसी हलवाई की दुकान थी उस दुकान पर रक्खे हुए लड्डुओंके थालमेंसे पांच लड्डु हाथीने ऋषिजीको दिये, ऋषिने आनंद पूर्वक ले लिये। लोगों में अपार हर्ष फैला, हाथी-मुनिराजकी दृष्टिरूप सुधा वृष्टिसे शान्त हो गया । आरक्षकोंने पकड़ कर ठिकाने बांध दिया। हाथी जैसा अज्ञान पशु जिनका आदर करे वह यशस्वी देव, दानव और मनुष्योंके पूजनीक क्यों न हों ? ऋषिराजके इस अपूर्व अतिशय से अनेक लोगोंको चारित्र धर्म- देश - विरति - और सुलभ बोधिपनेकी प्राप्ति हुई । मुनिके मुखपर अधिकाधिक तेज बढ़ता देख लोगोंने एक जबानसे प्रशंसा करते हुए कहा - " श्रमं विना नास्ति महाफलोदयः " श्रमं विना नास्ति सुखं कदाचन ।
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(३०) यतस्ततः साधुजनैस्तपःश्रमः, न मन्यतेऽनंतसुखो महाफलः ॥१॥
(अमितगतिः) विना परिश्रम किये महा फलकी प्राप्ति नहीं । परिश्रमके बगैर सुख कभी नहीं मिलता । जब कि-यह सिद्धान्त अटल है तो इसी वास्ते अनंत सुखके दायक-और उत्तमोत्तम फलके संपादक तपके करने में मुनिराज परिश्रम ( कष्ट ) को कुछ नहीं गिनते। __ मनके जीते जीत है, मनके हारे हार । भय और मृत्युके हजारों ही नहीं बल्कि लाखों क्रोडों निमित्तोंको सामने देखता हुआ भी जीव सिर्फ शरीरके मोहसे निगड़ित होकर तपसे वंचित रहता है । वह विचारा यह नहीं विचार करता कि माटीका ठीकरा कितने दिन बचा बचाकर रक्खूगा । इसपर पूर्वर्षियोंका महा
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( ३१ )
वाक्य उसे याद नहीं आता कि जो प्रतिक्षण स्मरण करनेके लायक है लिखा है कि
" पुष्णासि यं देहमवान्यचिन्तयं" स्तवोपकारं किमयं विधास्यति ? | ॥ " कर्माणि कुर्वन्निति चिन्तयात्मन् !, " जगत्ययं वञ्चयते हि धूर्तरराट् ॥ १ ॥ ( मुनिसुंदर सूरि : )
शरीरको पोषण करनेके लिये अकल्प्या और अभक्ष्यवस्तुयें देकर भी इस दुर्जनका सत्कार करना पड़ता है । इसके लिये १८ पापस्थानक सेवन द्वारा धन इकट्ठा करना पड़ता है । साबुन घिसघिस कर - अत्तर लगाकर पंखे हिलाकर दवाइयां पिलाकर सुंदरमें सुंदर पोशाकें पहनाकर दुखके समय धर्मको भूलकर रातदिन इसकी सेवा बरदास्त करते हुए भी यह खल, यह कृतघ्न अपनी प्रकृतिका गुण जरूर दिखाये विना
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(३२) नहीं रहेगा, इसलिये मनुष्यमात्रके लिये सूरिजी महाराजका यह उपदेश है कि-पापपुण्यका कुछ भी विचार न करके, जिस शरीरका तूं पोषण करता है, वह तुझ पर क्या उपकार करेगा? इस लिये उस शरी. रके लिये तू हिंसा आदि अकृत्य करता हुआ आगामी कालका विचार कर । यह शरीर रूप 'धूर्त ' तुझे और तेरे भाई बंधुओंको यावत् निखिल संसारको ठग रहा है, धोखा दे रहा है, आंखोंमें धूल डाल कर-सर्वस्व खोसे ले जा रहा है। वह शालीभद्रका शरीर कि जो देवताओंके दिये पुष्पोंकी शय्यामें सुखसे आराम करता था वही शरीर उनकी संयम अवस्थामें वन जैसा दृढ और सहनशील हो गया था कि जिससे अलौकिक सुखशायी शालीभद्र कुमारने महीने महीने की घोरतपस्या कर आत्मकल्याण किया था,
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(३३) ऋषिराज श्री क्षमाऋषिजी ज्यों ज्यों अधिकाधिक समयके पर्यायवाले होते जाते थे त्यों त्यों उनकी आत्माकी दशा भी उच्च, उच्चतर, और उच्चतम बनती जाती थी। दूसरे अभिग्रहका स्वस्थ चित्तसे पारण करके उन्होंने झट तीसरा नियम फिर धारण कर लिया। तीसरे प्रणमें यह प्रतिज्ञा थी कि" जातिकी ब्राह्मणी. साससे लड़ करके, दो ग्रामोंके अंतरमें रही हुई पूर्णपोली (घृत गुड मिश्र रोटी) दे तो हमारा पारण होवे अन्यथा-तपस्या" ॥ इस अभिग्रहके पूर्ण होने में ऐसा बनाव बना कि साससे दुःखिनी हुई कोई एक विप्रवधू घर छोड़ कर जंगलमें चली गई, वहां उसको दुःख दग्ध देखकर एक बूढे ब्राह्मणको (जो कि जंगलमें लकड़ियां लेने गया हुआ था) उस निराधार स्त्री पर क्या आई, उसने उससे वृत्तान्त पूछा।
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(३४) स्त्रीने उस ब्राह्मणको अपना पिता तुल्य समझ कर अपना कुल समाचार कह सुनाया। ब्राह्मणको निश्चय हुआ कि वाई तो निर्दोष है परन्तु इसकी सास बड़ी प्रचंड स्वभाववाली है । उसने अपने पास जो पूरणपोलिये खानेके लिये रक्खी हुई थी उनमेंसे कुछ उस ब्राह्मणीको दे दी। उस वक्त उस निदोष दुःखिनी औरतका अंतरात्मा केशपूर्ण था, उसने सोचा ऐसी दयाजनक स्थितिमें उत्तम भोजन मिला है यदि कोई अतिथि आजावे तो उसको देकर खाऊं, ऐसी स्थितिमें दिया हुआ दान अनंत गुण फलको पैदा करता है। __ऐसी विशुद्धभावनाके साथ-पर्वतके ऊपरसे पारणेके लिये वस्तीमें जाते हुए उसने ऋषिजीको देखा और उस अन्नकी प्रार्थना की । क्षमाऋषिजीके अभिग्रहमें जो जो बातें शामिल थीं। उन्होंने उनकी तलायशकी तो
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(३५)
सबकी सब बातें मौजूद पाई। प्रतिज्ञाकी पूर्ति हुई । दान देनेवाली विप्रपत्नीके शिरपर कुसुम वृष्टि करते हुए देवताओंने उसकी मुक्तकंठसे प्रशंसा की। सास श्वशुर वगैरह कुल परिवारके लोगों में उसका बड़ा मान सन्मान बढ़ा। और घरके तमामकार्य उसके अधीन किये गये। " तपोऽनुभावो न किमत्र बुध्यते ?
विशुद्धबोधैरियताक्षगोचरैः। यदन्यनिःशेषगुणैरपाकृतस्तपोऽधिकश्चेजगतापि पूज्यते ॥१॥
(अमितगतिः) जिन शासनके प्रवर्तक देवाधिदेव श्रीमन्महावीरस्वामीने जो कुछ आप खुदकिया है वही दूसरे भव्यात्माओंको करना फरमाया है. इसीका नाम तो न्याय है, संसा
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(३६)
रमें कहनेवालोंकी तो कमी नहीं. सिर्फ करनेवालोंकी ही त्रुटि है, । उसमें भी जिस लोकातीत आचारवाले विभुने जैसा कहा है वैसाही खुद कर बताया है बस वही मुमुक्षुओंको अनुकरणीय है। “जा बेटा शूली पर चढ़ जा तेरा बाल बांका न होगा" ऐसे मिथ्याड़बरियोंसे तो प्रायः संसार भरा पड़ा है। भारतकी तेतीस करोड़की वस्तिमें ५६ लाख साधु हैं जिनमें आत्मारामी-विषयवामी और सच्चे मुक्तिगामी थोड़ेही हैं । बहुतसे तो
स्वयं नष्टाः परान्नाशयति । . अन्चल तो उपदेश करना क्या है ? इस बातको ही नहीं जानते और अगर कतिपय कुछ जानते भी होंगे तो-- पंडित वैद्य मसालची तीनो एक समान । औरोंको चान्दन करें आप अंधेरे जान ॥१॥
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(३७) इस नमूनेके निकलेंगे । सफल जन्म है उन वैराग्यवंत महापुरुषोंका जिन्होंने अपने निजके शरीरके वास्ते भी
" इदं शरीरं क्षणभंगुरं खलु।" इसी रटनामें अनित्य-अस्थिर और शाश्वतमानकर तपोवृद्धि में ही सतत प्रयत्न किया है। __ आत्मगवेषी मुनिपुंगव श्रीक्षमाऋषिजीने तीसरे अभिग्रहको समाप्त कर फौरन ही ऊपर से चौथा घोरअभिग्रह धारण किया " श्याम तुंदवाला श्वेतनासिकावाला कटिहुई पूंछवाला सांढ अपने सींगोंसे उठाकर गुड देवे तो पारण करना” अन्यथा तपावृद्धि। मुनिराज अपनी प्रवचनमातृकाओंका आराधन करते हुए धारानगरी में विचरते हैं।
एक समय एक सांट मदोन्मत्त होकर गली गली बाजार बाजार घूम रहा था। उसने सामनेसे आते हुए ऋषिको देखा।
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(३८) मुनिराजके तपोबलसे पशुके मनमें दान देनेकी तीब्र इच्छा हुई, उसने एक दुकान पर गुड़का ढेर देखा, उसके मनमें तादृश मनोरथ होनेसे उसने सींगोंसे गुड़ उठा कर मुनिको दिया । इस वक्त भी इस अपूर्व घटनाको देखकर लोगोंको श्रद्धा भक्तिका लाभ हुआ !।
जिस दुकानदारका गुड़ मुनिराजके पारणेमें काम आया था उसने अपने तमाम गुड़को वेचकर एक मंदिर बनवाया। श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी प्रतिमा स्थापन कर अपनी न्यायोपार्जित लक्ष्मीका सदुपयोग किया । और अति विशुद्ध परिणाम आनेसे श्रीजिनधर्मका प्रत्यक्ष चमत्कार देखनेसे उसकी आस्था यहां तक ऊंची बढ़ गई कि उसने घर गृहिणी छोड़ कर श्रीयशोभद्र सूरिजीके पास दीक्षा स्वीकार की।
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( ३९) चौथा परिच्छेद ।
मुनिकी उदारता। इस तरह अनेक अभिग्रह मुनिराजने ऐसे २ कठोर स्वीकारे कि जो पार पहुंचने बड़े कठिन थे, जैसे एक अभिग्रह ऐसा लिया कि "भाद्रवमास हो, बन्दर सिंगलसे बाँधा हुआ हो वह भी फलानी जगह रह कर आमका रस दे तो लेना-" परन्तु कहा है कियदाराध्यं यत्साध्यं यद्धयेयं यच्च दुर्लभम् । तत्सर्व तपसा साध्यं, तपसा किं न सिद्धयति?। __ पारणेके बाद एक दफा-वह देव कि जो पूर्व जन्ममें कृष्ण राज्यांधिाकरी था और ऋषिजीके पास दीक्षा लेकर देवलोक में उत्पन्न हुआ था. क्षमाऋषिजीके पास आकर बोला "सिंधुल राजाके एक हजार हाथी बीमार
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पड़े हैं तड़फते हैं, आलोटते है, कान फटका रहे हैं और कूकते हैं। ऐसी हालतमें अमर कोई शख्स आपके चरणोंका जल लेनेको आवे तो आपने इनकार न करना इसमें जिन शासनकी प्रभावना होगी। यह कह कर देवता चला गया। राजा हाथियोंकी व्यथासे दुखी था। वैद्योंके उपचार भी निकम्मे हो चुके थे, मंत्रवादी भी अपना जोर लगा चुके थे, आखिर कुछ आराम न होने पर राजाने यह उद्घोषणा कराई कि-"जो इन हाथियोंको आराम कर देगा उसे आधा राज्य दूंगा" उसवक्त आकाशवाणी हुई कि-कंबलगिरि पर्वतकी गुफामें क्षमाऋषिजी तप तपते हैं उनका चरणोदक लाकर छांटा जाय तो हाथी नीरोग हो सक्ते हैं।"
राजाने प्रसन्न होकर मंत्रीको कंबलगिरी गुफामें भेजा मंत्री पानी लेकर आया और छांटनेकी तयारी ही थी कि एक तापस
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(४१)
आकर बोला ठहरो इस हाथीको छोड़कर और हाथियोंको बेशक यह पानी छांटो। इस हाथीके लिये हम अपना उपाय करेंगे। तापसका आन्तरिक आशय यह था कि जिन जिन हाथियोंको मैं न बचाऊंगा वे सब ही मर जायेंगे बस यह एक हाथी बचेगा इससे मेरी प्रतिष्ठा बढेगी। परंतु हुआ यह कि कोड़ों उपायोंके करने पर भी वह हाथी मर गया जिसे तापसने जिन्दा रखना चाहाथा। शेष बच गये ! तापसके ईर्ष्यालु स्वभावसे उसके किये हुए सब टोटके खाली ही चले गये ।
निग्रंथ प्रवचन जैन शासनकी महिमा बढ़ी। राजाने ऋषिजीके पास जाकर उन्हें आधा राज्य देना चाहा परन्तु ऋषिजीने एकही उत्तर देकर राजाको संतुष्ट किया कि राजन् ! मेरे संयमराज्यके सामने सार्वभौम चक्रवर्तिका राज्यभी तुच्छ है तो फिर तुम्हारे राज्य पर मुझे आसक्ति कैसे हो? मुनिराजकी निर्लोभताको देखकर राजाने अंतरंग श्रद्धासे
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(४२)
उनकी प्रशंसा की इतना ही नहीं बल्कि-एक जैन मंदिर बनवा कर विधिपूर्वक प्रभुप्रतिमा की प्रतिष्ठा करा उसी मंदिरमें मुनिराजकी चरण पादुका स्थापन कराकर भक्तिभावसे पूजने लगा !! । क्यों नहीं ? सक्ख खु दीसइ तवोविसेसो,
न दीसइ जाइविसेसु कोई । सोवागपुत्तं हरिएससाई, __ जस्सरिसा इड्डिमहाणुभावा ।।३७॥ उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १२ वा, आधा उस राज्य जो सुनिराजको देना स्वीकारा था, सत्य संघावाले सिंधुलराजने सात क्षेत्रोंका पोषण कर थोड़े ही समय में पृथ्वीको जैनधर्मसे पूर्ण परिचित कर दिया।
एक दिन मुनि श्री रास्ते में जा रहे थे, सामनेसे आते हुए एक मुरदेको देख उन्होंने पार्श्ववर्ति मनुष्योंको पूछा यह किसका मुरदा है ? कौन मरगया ? लोगोंने नम्रभावसे कहा
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( ४३ )
प्रभो ! यह धन व्यवहारीका लड़का था । आजसे छः महीने पहले इसे सांप काट गया था। आज तक अगणित उपचार किये परन्तु आखीर किसी तरह लड़का न बच सका । मुनिराजने कहा ठहरो उतावल मत करो लड़का जीता है" भद्रश्रेष्ठीने खुश होकर कहा प्रभु ! मैं संसारी जीव हूं यह एकका एक लड़का है, इस पर ही मेरे जीवनका आधार है. आप गुरु देवकी कृपा से यदि लड़का जीवित हो जावे तो मेरी अलूट लक्ष्मी सफल हो सक्ती है और मेरी अन्तिम अवस्था भी सुखसे व्यतीत हो सक्ती है,
मुनिराजने फापानी लेकर नमस्कार महामंत्र से मंत्रित कर तीन दफा छांटा कि तत्काल सोता मनुष्य उठकर बैठ जावे ऐसे लड़का सावधान हो गया । इस चमत्कारको देख कर सर्व मतावलंबि लोगोंने पवित्र निष्कलंक - सर्वज्ञ शासनकी प्रशंसा की । धन शेठने सम्यक्त्व मूल १२ व्रतोंको स्वीकार किया.
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( ४४) इन सर्व कार्यों में फतेह मंद होते हुए क्षमाऋषि'जीने विचार किया कि-यह सब प्रभाव गुरु महाराजका है।
"सेव्यः सदा श्री गुरुकल्पपादपः" “मुझे अब उचित है कि-उभयलोकके धर्म सार्थवाह गुरुमहाराजकी सेवा शुश्रूषा करके अपने स्वल्प जीवनको सफल बना लूं । यतोऽ वादि पूर्वर्षिभिः । दिवो दिवाकरो हन्ति, रात्रौ जैवातकस्तमः। हार्द तयोरसाध्यं तु, गुरुरेव न चापरः॥१॥ दिनादौ श्रीगुरोनाम मन्त्रमष्टोत्तरं शतम् । जप्त्वान्यमन्त्रस्मरणं, कर्तव्य सिद्धिमिच्छता २ क्रुद्धो गुरुर्वदति यानि वांसि शिष्ये । मध्यान्हसूर्य इव तानि दहन्ति देहम् ।। "तान्येव कालपरिणामसुखावहानि । पश्चाद्भवन्ति कमलाकरशीतलानि ॥३॥
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नेन्दु श्री आत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटी तरफसे छपी हुई सस्ती पुस्तकें. मूल्य परिशिष्टपर्व दो भाग 1-4-0 सूराचार्य और भीमदेव गुणस्थानकमारोह... 0-12-0 0-4-0 जातीय शिक्षा 0-1-0 चारित्र मंदिर 0-2-0 शिक्षाका आदर्श हिन्दीका संदेश संजीवनी बूटी जिनगुण मंजरी आरामनन्दन उच्चजीवनके सात सोपान संमय साम्राज्य 0-7-0 शिलशिक्षा 0-2-0 श्री सीमन्धर स्वामीने खुल्ला पत्रो मिलनेका पताश्री आत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटी शा. सदुभाई तलकचंद रतनपोल-अमदाबाद, - - For Private And Personal Use Only