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( ५ )
त्मन ! विश्ववत्सल ! करुणासागर ! दीनबन्धो ! तू सत्य है । तेरे वचन अबाधित हैं । संसार दुःखसागर है - हे तात ! तू वीतदोष है, मैं दोषाकर हूं । तू संसारसिन्धुसे तीर्ण और तारक है, मैं आकंठ डूबा पड़ा हूं । हे सद्गुण ! हे विषयजीपक ! तूने मुझे जो अखुद खजाना सोंपा था। मैने उसका कुछ भी उपयोग, या उपभोग न किया, उसे अंतवति चोरोंने लूट खाया | इस पारावारके तैरनेको आप जो जहाज देगये थे उसमें पानी भर गया, अब वह डूबा कि डूबा है, उसके संचालक मुझे निराधार छोड़कर चले जा रहे हैं, हे आश्रितवत्सल ! मुझे बचाले । देवेंद्रवन्द्य | विदिताखिलवस्तुसार ।। " संसारतारकविभो ! भुवनाधिनाथ ! | त्रायस्व देव ! करुणाहृद् ! मां पुनीहि, सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥
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