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हर एक मनुष्य जब न्यायमार्गका परित्याग कर अन्याय मार्ग पर सवार होता है तो उसे आपत्तिका बोझ उठना ही पड़ता है, इसमें संदेह ही क्या ? " सन्मार्गस्वलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि"।
क्यों इन्होंने धर्ममूर्ति जगतवत्सल मुनिको सताया ? क्यों अनार्योंने ऐसा अकृत्य आचरण किया ? क्यों ये दीवा लेकर कूएमें पड़े ? अगर इन्होंने जगत्पूज्य समतासागर साधु महाराज पर ही अपनी क्रूरताका उपयोग कर अपनी बहादुरी बतलाई है तो अब विषम बिपाक भी इन्हें ही भोगने दो। किसी भी मतके नेताओंसे, संप्रदायके संचालकोंसे, धर्मके प्रवर्तकोंसे, मजहबके दरवेशोंसे, आम्नायके साधुओंसे धर्मका सिद्धान्त पूछोगे तो वे धर्मका महिमा बतलाते हुए यही कहेंगे कि
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