Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 16
________________ ( १५) कारण स्पष्ट हैं शेष रही वक्रियिक काययोग, वक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कामणकाययोग मार्गणाएँ कर्मस्थिति कालके भीतर अवश्य ही होती हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, इसलिए इन मार्गणाओंमें बांधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय कहे हैं। १८९ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें यह स्पष्ट किया है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों उपयोगोंमें बांधे गये कर्म इस क्षपक के नियमसे पाये जाते हैं। इन्हीं में मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानको भी सम्मिलित कर लेना चाहिये । कारण स्पष्ट है। किन्तु अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान साथ ही विभंगज्ञान कर्मस्थिति कालके भीतर हों ऐसा कोई नियम नहीं है, इसलिए इन मार्गणाओंमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय वहा है। १९० संख्याक चौथी भाष्यगाथामें स्पष्ट किया है कि चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन इन दोनों उपयोगोंमें बाँध गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। पर यह स्थिति अवधिदर्शन की नहीं है, इसलिए इस उपयोगमें बांधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय होते हैं यह कहा है। आगे १९१ संख्याक छठवीं मूल गाथा है। इसमें बतलाया है कि किस लेश्यामें, किन कर्मोमें, किस क्षेत्रमें और किस काल में साता, अशाता और किस लिंगके साथ बांधे गये कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं । इस प्रकार इस मूलगाथाद्वारा पृच्छा की गई है। आगे उत्तरस्वरूप इसकी दो भाष्यगाथाएं हैं। उनमेंसे १९२ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया है कि सभी लेश्यायोंमें तथा साता और असातामें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे होते हैं, क्योंकि तिर्यञ्चों और मनुष्यों के इनका सद्भाव पाये जाने में कोई बाधा नहीं आती। अन्तर्मुहूर्तमें ये बदलते रहते हैं। तथा सभी कार्यों और सभी लिंगोमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके पाये भी जाते हैं और नहीं भी पाये जाते, क्योंकि कप स्थिति कालके भीतर इस जीवके ये नियमसे होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है । यहाँ कर्मसे अंगारकर्म, काष्ठकर्म और वनकर्म किये गये हैं। तथा लिंगसे तापस आदि अन्य लिंग लिये गये है। वे कर्मस्थितिकालके भीतर इस जीवके नियमसे होते है ऐसा भी कोई नियम नहीं है। इसलिये यहाँ सभी कर्मों और सभी लिंगों में बांधे गये कर्म इस क्षपकके होते भी हैं और नहीं भी होते हैं, यही बात शिल्पके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिये। यहाँ जो लिंग पदसे सभी लिंगका ग्रहण किया है तो निर्ग्रन्थता कोई लिंग नहीं है वह तो जीवका स्वरूप है, इसलिये लिंग पदसे यहाँ निर्ग्रन्थ लिंगका ग्रहण नहीं होता ऐसा यहाँ समझना चाहिये । क्षेत्र पदसे अधोलोक आदि तीनोंका ग्रहण होता है । सो यहाँ अधोलोक और कललोकको अपेक्षा भजनीयता जाननी चाहिये । क्योंकि कोई जीव तिर्यक् लोकमें पुरे कर्मस्थितिकालतक रहकर अन्त में क्षपक होकर मोक्षवासी बन जाय, इन दोनों लोकोंमें न जाय, इसलिये इन दोनों क्षेत्रों में बांधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय कहे हैं । इसी प्रकार उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालकी अपेक्षा भी समझ लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे हम यहाँ स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं। १९३ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया गया है कि जिन तीन मूलगाथाओंमें अभजनीय पूर्वबद्ध कर्मोकी चर्चा कर आये हैं वे इस क्षपकके सभी स्थितियों में, सभी अनुभागोमें और सभी कृष्टियों में नियमसे पाये जाते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिये। आगे १९४ संख्याक सातवीं मूल गाथामें दो पृच्छाएँ की गई हैं । प्रथम यह पृछा की गई है कि एकएक समयप्रधद्धसम्बन्धी कितने कर्मपरमाणु उदयको न प्राप्त होकर कितने स्थितिके भेदों में और कितने अनुभागोंमें इस क्षपकके पाये जाते है । तथा दूसरी पृच्छा यह की गई है कि एक एक भवमें बाँधे गये कितने कर्म उदयको प्राप्त हुए बिना इस क्षपकके पाये जाते हैं । इसप्रकार ये दो पृच्छाएं हैं जो इस मूलगाथाद्वारा की गई हैं।

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