Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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आगे चार भाष्यगाथाओं द्वारा इस विषयको स्पष्ट किया जाता है। उनमें से १९५ संख्याक पहली भाष्यगाथा द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अन्तरकरण करने के बाद छह आवलियों में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके अनुदीरित होकर चारों कषायों सम्बन्धी सभी स्थितियों और सभी अनुभागों में पाये जाते हैं। किन्तु भवबद्ध सभी समयप्रबद्ध इस क्षपकके उदयमें संक्षुब्ध रूपसे पाये जाते हैं।
१९६ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि बाँधे गये कर्मप्रदेश बन्धावलि कालतक क्रोध संज्वलनकी प्रथम कृष्टि में ही पाये जाते हैं, बन्धावलि कालतक उनका अपकर्षण और परप्रकृति सत्क्रम सम्भव नहीं है। हाँ बन्धावलिके बाद द्वितीयावलिमें स्थित उन नवकबन्धं कर्मप्रदेशोंका आनुपूर्वी संक्रमके कारण क्रोध संज्वलनको प्रथम कृष्टि सहित अनन्तर चार कृष्टियों में संक्रम होकर उनका तद्भाव पाया जाता है। कारण कि बन्धावलि कालतक जो नया बन्ध हुआ है वह तदवस्थ रहता है। पुनः बन्धावलि कालके बाद द्वितीयावलिमें स्थित नवकबन्ध क्रोधकी दो संग्रह कृष्टियोंमें और मानकी प्रथम संग्रह कृष्टि में संक्रमित होता है।
१९७ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें बतलाया गया है कि तीसरी आवलिमें स्थित वह नवकबन्ध मानकी अन्तिम दो आवलियोंमें तथा मायाको प्रथम आवलिमें संक्रमित होकर सात आवलियोंमें दिखाई देता है । इसी प्रकार चौथी आवलिमें स्थित वह नवकबन्ध मायाकी दो और लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि में संक्रमित होकर दस आवलियोंमें दिखाई देता है। तथा पांचवीं आवलिमें स्थित वह नवकबन्धी चारों कषायोंकी सभी आवलियों में दिखाई देता है ऐसा यहां समझना चाहिये ।
१९८ संख्याक भाष्यगाथामें यह कहा गया है कि ये अनन्तर कहे गये समयबद्ध इस भवमें इस क्षाकके उदय स्थिति में नियमसे असंक्षुब्ध रहते हैं या भवबद्ध समयप्रबद्ध नियमसे संक्षुब्ध रहते हैं।
.१९९ संख्याक मूलगाथामें यह जिज्ञासा प्रगट की गई है कि कितने एक और नाना समयप्रबद्ध शेष तथा नाना भव द शेष कितने स्थितिभेदों और अनुभागभेदोंमें पाये जाते हैं। एक और नाना कितने समयप्रबद्ध भवबद्ध शेष एक स्थिति विशेष में पाये जाते हैं । तथा एक समयप्रबद्ध सम्बन्धी एक स्थिति विशेष में एक
और नाना कितने समय प्रबद्ध शेष और भयबद्ध शेष पाये जाते हैं । यहाँ शेषसे मलतब भोगनेके बाद जो शेष रहे और तदनन्तर समय में निलेपित (निर्माण) होनेवाले हैं उनसे है। यह अर्थ समयप्रबद्ध और भवबउ दोनोंकी अपेक्षा जान लेना चाहिये । विशेष खुलासा टीकासे कर लेना चाहिये।
इसकी चार भाष्यगाथाएं है। २०० संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया है कि एक स्थिति विशेष और अनन्त अनुभागों में भवबद्ध शेष और समयप्रबद्ध शेष नियमसे पाये जाते हैं। यहाँ एक स्थिति विशेषसे मतलब एक समय अधिक उदयावलिसे ऊपर अन्यतर स्थिति विशेष लिया है। विशेष खुलासा टीकासे कर लेना चाहिये।
२०१ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि एक वे भवबद्ध शेष और समयबद्ध शेष कमसे कम एक स्थिति विशेष में और अधिकसे अधिक असंख्याक स्थिति विशेष में पाये जाते हैं। तथा नाना भवबद्ध शेष और समयप्रबद्ध शेष जघन्यपनेकी अपेक्षा भी असंख्यात स्थिति विशेषों में पाये जाते हैं।
२०२ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि भवबद्ध शेष और समयप्रबद्ध शेष जिन स्थितियों में पाये जाते हैं उन सामान्य स्थितियोंको छोड़कर जिन स्थितियों में ये भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष नहीं पाये जाते हैं वे स्थितियां असामान्य स्थितियाँ होकर भी इस क्षपकके पुनः पुनः निरन्तररूपसे कितने कालतक पायी जाती हैं। इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि वे असामान्य स्थितियां अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और पुनः पुनः निरन्तररूपसे वर्षपृथक्त्व कालतक पायी जाती हैं।
आगे प्रकृत विषयको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि एक-एक करके प्राप्त होनेवाली वे असामान्य स्थितियाँ थोड़ी है । दो दो करके प्राप्त होनेवाली वे असामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । इस प्रकार क्रमसे