Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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(२१) (८) बध्यमान संग्रहकृष्टियोंसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियां असंख्यात कृष्टियोंको उल्लंघन कर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण कृष्टि अन्तरालों में निष्पन्न होकर प्राप्त होती है । पुनः इतने ही अन्तरालोंको उल्लंघन कर दूसरी अपूर्व कृष्टि निष्पन्न होकर प्राप्त होती है । इस प्रकार क्रमसे इतने-इतने अंतरालोंको उल्लंघन कर ही अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति होकर प्राप्ति जानना चाहिये । यहाँ क्रोध संज्वलन की अपेक्षा विचार है, इसी प्रकार मान, माया और लोभ संज्वलन की अपेक्षा भी जानना चाहिये ।
प्रदेशोंकी अपेक्षा इन कृष्टियोंमें प्राप्त होने वाले प्रदेश-पुंजके अल्प-बहुत्वकी अपेक्षा विचार करने पर बध्यमान जघन्य कृष्टि में बहुत प्रदेश पुंज होता है । दूमरी कृष्टिमें अनन्तवां भाग विशेष हीन प्रदेश पुंज है। तीसरी कृष्टि में अनन्तवां भाग विशेष हीन प्रदेश पुंज होता है। इस प्रकार बध्यमान अंतिम अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक जानना चाहिये ।
(९) संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे जो अपूर्व कृष्टियाँ निपजती हैं वे कृष्टि-अंतरालोंमें और संग्रह कृष्टिअंतरालोंमें निपजती है । जो संग्रह कृष्टि-अंतरालोंमें निपजती हैं वे थोड़ी होती है। जो कृष्टि-अंतरालोंमें निपजती है वे असंख्यात गुणी होती है। संग्रह कृष्टि-अंतरालों में उत्पन्न होने वाली अपूर्व कृष्टियों की बिधि कृष्टिकरणके समय निष्पन्न होने वाली अपूर्व कृष्टियोंकी विधि जैसी कही है वैसी जाननी चाहिये । कृष्टि-अंतरालोमें निष्पन्न होने वाली कृष्टियों की विधि बध्यमान प्रदेशपुंजसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कष्टियोंकी विधि जैसी कही है बैसी जाननी चाहिये ।
(१०) कृष्टि-वेदक के प्रथम समयमें क्रोध संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके असंख्यातवें भागका विनाश होता है। जो कृष्टियां प्रथम समयमें विनाश को प्राप्त होती हैं वे बहुत होती है। जो कृष्टियाँ दूसरे समय में विनाशको प्राप्त होती है वे असंख्यात गुणी हीन होती हैं । उसोप्रकार क्रोध संज्वलन की प्रथम संग्रह कुष्टिके द्विचरम समय तक जानना चाहिये।
(११) इस प्रकार क्रोध संज्वलन की प्रथम कृष्टि के वेदन करनेवाले जीवके जब एक समय अधिक एक आवली काल शेष रहता है उस समय यह जीव (१) क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। (२) क्रोध संज्वलन की प्रथम कृष्टि का अन्तिम समयवर्ती वेदक होता है । (३) संज्वलन अनुभाग सत्कर्मको जो अनुसमय अपवर्तना प्रवृत्त हुई थी वह उसी प्रकारसे प्रवृत होती रहती है (४) चार संज्वलनोंका स्थितिबंध दो महीना और अन्तर्मुहूर्त कम चालिस दिवस प्रमाण होता है । (५) चारों संज्वलनों का स्थिति सत्कर्म छह वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम आठ माह प्रमाण होता है । (६) तीन घातिया कर्मों का स्थितिबंध अन्तर्महर्त कम दस वर्ष प्रमाण होता है । (७) घातिकोका स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्षप्रमाण होता है।1८) शेषकर्मोंका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है।
(१२) तदनन्तर क्रोधसंज्वलनको दूसरी कृष्टिको प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। उस समय क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका सत्कर्म दो समयकम दो आवलि प्रमाण नवकबन्ध शेष रहता है और जो उदयावलि प्रविष्ट द्रव्य है वह शेष रहता है । तथा उस समय यह क्षपक क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रहकष्टिका वेदक होता है। सो इसकी विधि पहली संग्रहकृष्टिके वेदक जीवके समान जाननी चाहिये।
अब यहाँ पर संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजको विधिको बतलाते हुए लिखा है कि क्रोधसंज्वलनको दसरी संग्रहकृष्टिसे प्रदेशपुंज क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें और मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है । तथा क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें ही संक्रमित होता है ।
मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मानकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टि में तथा मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमिक होता है । मानकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मानकी तीसरी और मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टि में संक्रमित होता हैं। तथा मानकी तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है।