Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 20
________________ (१९) आगे ८वीं मुलगाथाकी २०२ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें सामान्यसंज्ञा और असामान्य संज्ञाका विचार करते हए बतलाया है कि जिस किसी एक स्थिति विशेष में जो भवबद्ध शेष और समयप्रबद्ध शेष सामान्य नहीं होते हैं उनकी असामान्य संज्ञा है। वे असामान्य स्थितिविशेष परस्पर संलग्न होकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं और वे वर्ष पृथक्त्वकालके भीतर आवलिके असंख्यातवें भाग बार पुनः पुनः निरन्तर पाये जाते हैं। इस प्रकार सामान्य संज्ञा और असामान्य संज्ञाकी अपेक्षा स्थितिविशेषका विचार करने के बाद आगे वर्षपृथक्त्व प्रमाण स्थिति के भीतर किस रूप में ये पाये जाते हैं और किस स्थानपर जाकर यवमध्य होता है आदिका विशेष विचार पहले ही कर आये है । आगे अन्य उपयोगी विचारके बाद निर्लेपनस्थान आदिके आश्रयसे अल्पबहत्वका विचार करनेके बाद ८वीं मूल गाथा और उसकी भाष्यगाथाओंकी व्याख्या समाप्त की गई है। आगे २०४ संख्याक ९वीं मूलगाथाका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि इस द्वारा कृष्टिवेदक के प्रथम में ज्ञानावरणादि कर्मोके स्थिति और अनुभागसत्कर्म कितना होता है । साथ ही उनके बन्ध और उदयका भी विचार स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा इस मूल गाथा द्वारा किया गया है । इसको दो भाष्यगाथाएँ हैं । २०५ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया है कि कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें नाम. गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है । तथा शेष चार घाति कर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्ष प्रमाण होता है। विशेष इतना है कि उस समय मोहनीयकर्मका स्थिति सत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होनेसे संख्यात वर्ष प्रमाण कहा गया है। २०९ संख्याक दूसरी भाष्यगाथाका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया गया है, कि उस अवस्था में वेदनीय, शुभनाम यशः कोति और उच्चगोत्रका शत सहस्र वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध करता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका संख्यात हजार वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध करता है। तथा मोहनीय कर्मका चार माहप्रमाण स्थितिबन्ध करता है । अनुभागबन्धका विचार करते हुए बतलाया है कि सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका आदेश उत्कृष्ट या ईषत् उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है। तथा तीन घातिको और मोहनीय कर्मका ज्ञत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्ध होता है। पहले क्षपकके प्रायोग्य ११ मूल गाथाएँ कही थीं उनमेंसे ९ गाथाओंका व्याख्यान किया। प्रकत में अन्तकी शेष दो गाथाएँ स्थापित की जा रही है, क्योंकि ये कृष्टि वेदकके कालसे सम्बद्ध हैं। इन दो गाथाओंके अतिरिक्त अन्य गाथाओंका सम्बन्ध कृष्टिवेदक कालसे आता है। इसलिये उनका यहाँ व्याख्यान क्यों किया ऐसा प्रश्न होनेपर प्रकृतमें समाधान करते हुए बतलाया है कि उनका सम्बन्ध कृष्टिवेदक कालके साथ होकर भी कृष्टि वेदक कालके साथ भी आता है, इसलिये उनका सामान्य नाम कालके साथ करने में कोई बाधा नहीं आती। आगे कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा सत्त्व और बन्ध कितना होता है इसका उल्लेख करने के बाद अनुभागका विचार करते हए बतलाया है कि यहाँसे लेकर मोहनीय अनुभागकी प्रति समय अनन्त गुणहानिरूपसे अपवतने होने लगती है । खुलासा इस प्रकार है कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें क्रोधकृष्टि उदयमें उत्कृष्ट बहुत होती है। अर्थात् इस समय जिन अनन्त मध्यम कृष्टियोंका उदयमें प्रवेश होता है उनमेंसे जो सबसे उपरिम उत्कृष्ट कृष्टि है वह बहत अर्थात् तीव्र अनुभाग वाली होती है । तथा उस समय बध्यमान जो अनन्त कृष्टियां होती है उनमें जो सबसे उत्कृष्ट होती है वह उदयकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली होती है। इसके आगे बन्धको प्राप्त होनेवाली क्रोध कृष्टिसे दूसरे समयमें उदयको प्राप्त होनेवाली प्रथम समयमें उत्कृष्ट क्रोध कृष्टि अनन्त गुणी हीन होती हैं। तथा उससे बन्धकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्रोषकृष्टि अनन्तगुणी हीन होती है । इसी प्रकार समस्त वेदककालके भीतर जानना चाहिये ।

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