Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 18
________________ (१७) जाते हुए वे असामान्य स्थितियाँ आवलिके असंख्यातवें भागमें दूनो हो जाती हैं। यह एक अर्थ है । इसी प्रकार यहाँ आये हुए 'एक क्वेण असामण्णाओ' इत्यादि चणिसूत्रका दूसरा अर्थ करते हुए बतलाया है कि एक एक सामान्य स्थितिसे अन्तरित होकर उन असामान्य स्थितियोंकी शलाकाएं थोड़ी हैं। दो दो सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियां मिलाकर विशेष अधिक है। तोन तीन सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियां मिलाकर विशेष अधिक है। इस प्रकार इस प्ररूपणामें भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर उनकी दूनी वृद्धि होती है। और इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुण वृद्धि होनेपर वहाँपर पहले कर आये प्ररूपणामें और इस प्ररूपणामें दोनोंमें यवमध्य होता है। पुनः उसके बाद विशेष हानिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर द्विगुण हानि होती है। इस प्रकार अन्तिम विकल्पके प्राप्त होनेतक द्विगण हानियाँ होकर जाती हैं। यहाँ जैसे असामान्य स्थितियोंको ध्यानमें रखकर यवमध्यको प्ररूपणा की है उसी प्रकार सामान्य स्थितियोंकी विवक्षामें यवमध्यकी प्ररूपणा जाननी चाहिये। यहाँ जिस प्रकार सामान्य और असामान्य स्थितियोंको अपेक्षा विचार किया उसी प्रकार भवबशेष और समयप्रबद्धशेषकी अपेक्षा भी जान लेना चाहिये। विशेष ऊहापोह मूलमें २०३ संख्याक चौथौं भाष्यगायाकी टीकामें किया हो है, इसलिये इसे वहाँसे जानना चाहिये। ___ यहाँ इन चार भाष्यगाथाओंको प्ररूपणा क्षपक श्रेणीको ध्यानमें रखकर की है। अभव्यजीवोंकी विवक्षामें भी इसी प्रकार कर लेनी चाहिये। इसी प्रसंगसे एक कर्म स्थितिके भीतर कितने निर्लेपन स्थान होते हैं इसे स्पष्ट करते हुए चणिसूत्रमें बतलाया है कि इस विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं। एक उपदेश के अनुसार एक कर्मस्थितिके भीतर असंख्यात बहुभागप्रमाण निलेपन स्थान होते हैं। इतने कैसे होते हैं इसका खुलासा करते हुए लिखा है कि जो समयप्रबद्ध विवक्षित कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बन्धको प्राप्त हुआ है उसका प्रदेशपुंज बन्ध समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक नियमसे रहकर उसके अन्तिम समय में निश्शेष हो जाता है। अथवा उससे अगले समयमें वह निःशेष हो जाता है। इस प्रकार एक-एक समय अधिक होकर कर्मस्थितिके अन्तिम समयतक ये निलेपन स्थान होकर जाते हैं। यह एक समयप्रबद्धकी विवक्षामें कथन किया है। इसी प्रकार सभी समयप्रबद्धोंके कर्मस्थितिके भीतर निर्लेपन स्थान जानने चाहिए। __दूसरे प्रवाहमान उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपन स्थान होते हैं। इसका खुलासा करते हुए बतलाया है कि कर्मस्थितिके प्रथम समयमें जो समयप्रबद्ध बन्धको प्राप्त हुआ है वह कर्म स्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण कालतक नियमसे रहकर उसके बाद पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण कर्म स्थितिके शेष रहनेपर उदयको प्राप्त होकर नियमसे निलंपित हो जाता है । अथवा उसके अगले समयमें वह निर्लेपनको प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार ये निर्लेपन स्थान एक-एककर कर्मस्थितिके अन्तिम समयतक जाते है। अतः ये सब मिलाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। आगे जघन्य निर्लेपन स्थानसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपन स्थान तक जितने निर्लेपन स्थान होते हैं उनमेंसे जघन्य निर्लेपन स्थानको अतीत कालमें एक जीवने कितनी बार किया है तत्सम्बन्धी जो समुदित काल है वह सबसे थोड़ा है। एक समय अधिक दसरे निर्लेपनमें रहकर निर्लेपितपूर्व समयप्रबद्धोंका यह काल समुदित होकर एक जीवकी अपेक्षा विशेष अधिक है । इसी प्रकार विशेष अधिक होता हुआ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थानोंके जानेपर वहां प्राप्त निर्लेपनस्थानका काल जघन्य निर्लेपनस्थानके कालसे दूना हो जाता है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुण कृष्टियोंके प्राप्त होनेपर यवमध्यरूपसे निर्लेपनकाल उत्पन्न होता है। किन्तु यह यवमध्यस्थान उत्पन्न होता हुआ निलेपनस्थान सम्बन्धी समस्त स्थानोंके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर ही उत्पन्न हमा है । पुनः इस स्थानसे आगे निर्लेपन काल घटता हुआ जाता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये।

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