Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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( १४ ) जयधवला टीकामें तियंच गतिमें अर्जित किया गया कर्म इस क्षपकके कैसे पाया जाता है इस बात का खुलासा करते हुए बतलाया गया है कि जो जीव तियंच गति से निकलकर शेष दो गतियों में सी पृथक्त्व सागरोपम काल तक रह कर क्षपक श्रेणिपर आरोहण करता है उसके तियंच गतिमें अर्जित होकर कर्म स्थिति में हुए संचयका पूरी तरहसे अभाव नहीं होता और मनुष्य गतिमें आये बिना इस जीवका क्षपक श्रेणिपर आरोहण करना सम्भव नहीं है, इसलिये तियंचगति और मनुष्य गतिमें संचित हुआ कर्म इस क्षपक के नियमसे पाया जाता है ऐसा यहाँ विशेष समझना चाहिये ।
१८४ संख्याक दूसरी भाष्यगाथा में बतलाया है कि असंख्यात एकेन्द्रिय सम्बन्धी भवों में बाँधे गये कर्म इस क्षपक के नियमसे पाये जाते हैं, क्योंकि कर्म स्थितिके भीतर कमसे कम पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एकेन्द्रिय सम्बन्धी भवोंका ग्रहण नियमसे पाया जाता है तथा एकसे लेकर संख्यात त्रससम्बन्धी भवों में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । यदि एकेन्द्रियोंमेंसे आकर और मनुष्य होकर इसी पर्यायसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ता है तो ससम्बन्धी एक भवमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । इस प्रकार अधिक से अधिक संख्यात त्रसभव ग्रहण कर लेने चाहिये । बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियम से पाये जाते हैं ।
१८५ संख्याक तीसरी भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि उत्कृष्ट अनुभाग और उत्कृष्ट स्थितियुक्त पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अनियम से पाये जाते हैं, क्योंकि कर्म स्थिति के भीतर उस्कृष्ट अनुभाग और उत्कृष्ट स्थिति विशिष्ट यदि कर्म बाँधे गये हैं तो उनका क्षपकके कदाचित् पाया जाता सम्भव है, और कर्म स्थिति के भीतर अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ कर्मोंका बन्ध करता आया है तो उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग के साथ बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे नहीं पाये जाते हैं । तथा चारों कषायोंमें से प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है, इसलिए चारों कषायों के कालमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं ।
आगे १८६ संख्याक मूल गाथा में पर्याप्त अवस्था, अपर्याप्त अवस्था, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, योग और उपयोग इनमें से किस अवस्था में रहते हुए बाँधे गये कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं यह पृच्छा की गई है ।
इस मूल सूत्रगाथाकी चार भाष्यगाथाएँ हैं । उनमें से १८७ संख्याक प्रथम भाष्यगाथा में बतलाया है कि पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था, मिथ्यात्व नपुंसकवेद और सम्यक्त्व इन मार्गणाओं में बाँधे गये कर्म
मार्गणाएँ नियमसे होती हैं, इसलिये
।
परन्तु क मंस्थिति के भीतर स्त्रीवेद,
इस अपकके नियमसे पाये जाते हैं । कारण कि कर्मस्थितिके भीतर ये इन मार्गणाओं में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं पुरुष वेद और सम्यग्मिथ्यात्व ये मार्गणाएँ होती भी हैं और नहीं भी पूर्व कर्म इस क्षपकके कदाचित् पाये भी जाते हैं और कदाचित् नहीं भी पाये जाते हैं ।
होती हैं, इसलिए इन मार्गणाओं में
१८७ संख्याक प्रथम भाष्यगाथा में बतलाया है कि कर्नस्थिति कालके भीतर पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था नियमसे होती है, क्योंकि कर्मस्थितिका काल बहुत बड़ा है, इसलिए उक्त कालके भीतर इन अवस्थाओं का प्राप्त होना अवश्यंभानी है । मिथ्यात्व और नपुंसकवेद मार्गणाओंके विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए, क्योकि जीव इन मार्गणाओंको प्राप्त न हो और कर्मस्थितिका काल पूरा करले यह सम्भव ही नहीं है । इसलिये पूर्वकथित मार्गणाओं में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके अभजतीय कहे हैं । मात्र स्त्रीवेद, पुरुषवेद और सम्यग्मिथ्यात्व ये अवस्थाएँ कर्मस्थिति कालके भीतर हों और नहीं भी । इसलिए इन मार्गणाओं में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय कहे हैं ।
१८८ संख्याक दुसरी भाष्य गाथामें यह स्पष्ट किया है कि औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रयोग, चारों मनोयोग और चारों वचनयोग इन मार्गणाओं में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं ।