Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 14
________________ ( १३ ) १७० संख्याक मूल गाथाका दूसरा पद 'अनुभागग्गेण' है । उसमें १७५ संख्याक एक भाष्यगाथा आई है। इसमें अनुभागकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका निर्देश किया गया है। चारों कषायोंमेंसे प्रत्येक तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ हैं । उनमें प्रत्येक कषायकी अपेक्षा दूसरीसे पहली तथा तीसरीसे दूसरी संग्रह कृष्टि अनुभागपुंजी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणी है । १७० संख्याक मूलगाथाका तीसरा पद है—' का च कालेण' । इसमें छह भाष्यगाथाएँ हैं । उनमें में १७६ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें कृष्टियोंके स्थिति सम्बन्धी कालका विवेचन करते हुए बतलाया है कि जो लोभके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके लोभ कृष्टिके वेदनके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म एक वर्षप्रमाण होता है । जो मायाके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके माया कृष्टियों का वेदन करनेके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म दो वर्ष प्रमाण होता है । जो मानके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके मान कृष्टियों के वेदनके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म चार वर्ष प्रमाण होता है । जो क्रोध के उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके क्रोध कृष्टियोंके वेदन करनेके प्रथम समय में मोहनीयका स्थितिसत्कर्म आठवर्ष प्रमाण होता है । १७७ संख्याक दूसरी भाष्यगाथा में प्रकृतमें यवमध्य कैसे बनता है इसे स्पष्ट किया गया है । अन्तरकरण विधि सम्पन्न हो जानेके कारण यहाँ संज्वलन कर्म दो स्थितियों में विभक्त हो जाता है । अन्तरकरण से नीचे की स्थितिका नाम प्रथम स्थिति है । और अन्तरसे ऊपरकी स्थितिका नाम द्वितीय स्थिति है । इसलिए यहाँ इस दोनों स्थितियों में अन्तरसहित यवमध्यकी रचना बन जाती है यह इस गाथाका भाव है । १७८ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें द्वितीय स्थितिका प्रथम निषेक प्रदेशपुंजकी अपेक्षा उसी स्थिति के अन्तिम निषेककी अपेक्षा कितना अधिक है इसे स्पष्ट करते हुए वह असंख्यातव भाग अधिक है यह स्पष्ट कहा गया है । १७९ संख्याक चौथी भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि यहाँ जो उदयादि गुण श्रेणि होती है। उसमें असंख्यात गुणित श्रेणि रूपसे प्रदेशपुंज दिया जाता है । १८० संख्याक पांचवीं भाष्यगाथा में यह बतलाया है कि प्रथम स्थितिकी जितनी अवान्तर स्थितियाँ होती हैं उन सबसे आदिकी स्थिति में सबमें थोड़ा द्रव्य पाया जाता । तथा उसका उदय होकर निर्जरा होनेपर जो दूसरी स्थितिका उदय होता है उसमें असंख्यात गुणित श्रेणि रूपसे द्रव्य पाया जाता है । इसी प्रकार गुण श्रेणि अन्तिम समय तक जानना चाहिये । १८१ संख्या ५ वीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि अन्तिम कृष्टिसे लेकर प्रथय कृष्टि तक सब कृष्टियों का जो वेदक काल है वह उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक है । यहाँ विशेष अधिक का प्रमाण पिछली कृष्टिके कालसे उत्तरोत्तर संख्यातवाँ भाग अधिक होता जाता है । आगे चौथो मूलगाथाका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि किन-किन गतियोंमें, भवों, स्थितियों, अनुभागों में तथा तत्सम्बन्धी कृष्टियों और उनकी स्थितियों में संचित हुए पूर्व बद्ध कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं । इस मूल सूत्रगाथाकी तीन भाष्यगाथाएँ है । इनमें से १८३ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया गया है कि तिर्यंच और मनुष्य गतिमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । किन्तु नरकगति और देवगति में बांधे गये कर्म इस क्षपकके होते भी हैं और नहीं भी होते हैं । इसी प्रकार एकेन्द्रिय सम्बन्धी पाँच स्थावर कायिकों में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके होते भी है और नहीं भी होते । किन्तु पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी कायिकों में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाए जाते हैं । यहाँपर सकायिक ऐसा सामान्य रूप से कहने पर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंका ही ग्रहण करना चाहिये । शेषका नहीं, बाँधे गये कर्म इस क्षपकके होते भी हैं और नहीं भी होते । क्योंकि शेष सकायिकों में

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