Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 12
________________ (११) पुनः इस जीवके क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके असंख्यात बहुभागका दन्ध होता है । उस समय शेष दो संग्रह कृष्टियोंका न तो बन्ध ही होता है और न उदय ही, क्योंकि प्रथम संग्रह कृष्टिके उदयकालमें शेष दो संग्रह कृष्टियोंका उदय होना सम्भव नहीं। तथा जिस समय जिस कषायको जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस समय उसका उसी रूपसे ही बन्ध हो । है ऐसा नियम है। आगे इसके अल्पबहुत्वका निर्देश करने के बाद कृष्टिनेदक कालको स्थगित करके कृष्टिकरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाली सूचनाओं का निर्देश करते हैं। ९. गाथासूत्र प्ररूपणा : कृष्टिकरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाली ग्यारह मूल सूत्रगाथाएं हैं। उनमें प्रथम मूल सूत्र गाथा है 'केवदिया किडीओ' इत्यादि । इसके चार अर्थ हैं। कुल कृष्टियाँ और उनकी अवयव कृष्टियां कितनी है। यह प्रथम पृच्छा है । एक-एक, कषायकी कितनी संग्रह और अवयव कुष्टियाँ हैं यह दूसरी पृच्छा है। कृष्टियोंको करनेवाला चारों संज्वलनों के प्रदेशपुंजका क्या अपकर्षणकरण करता है या उत्कर्षणकरण कर यह कर विषयक तीपरी इच्छा है। तथा कृष्टियों को करनेवालेका अनुभाग किस प्रकारका रहता है यह चौथो पृच्छा है । इस प्रकार यह मूलगाथा चार अर्थोंको स्पर्श करती है। इसकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं। उनमेंसे प्रथम भाष्यगाथामें दो अर्थ निबद्ध हैं। यथा-क्रोधके उदयसे जो जीव श्रेणिपर आरोहण करता है उसके १२ संग्रह कृष्टियाँ होती हैं। मानके उदयवालेके ९, मायाके उदयवालेके ६ और लोभके उदयवालेके ३ संग्रह कष्टियां होती हैं। क्योंकि क्रोधके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करनेवाले जीवके चारों कषायोंकी सत्ता पाई जाती है, इसलिए वह सभी कषायों सम्बन्धी संग्रह कृष्टियाँ और उनकी अवान्तर कृष्टियाँ करता है। मान कषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाला जीव कृष्टिकरणके पहले ही स्पर्धकरूपसे क्रोध संज्वलनका नाश कर देता है । जो मायाके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है वह माया और लोभकी छह संग्रह कृष्टियां करता है, क्योंकि वह कृष्टिकरणके पहले ही स्पर्धक रूपसे क्रोध और मानसंज्वलनका नाश कर देता है । जो लोभके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है वह लोभकी तीन संग्रह कृष्टियां करता है, क्योंकि वह कृष्टिकरणके पहले स्पर्धक रूपसे ही क्रोध, मान और मायासंज्वलनका नाश कर देता है । इससे सिद्ध है कि एक-एक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियां होती हैं और प्रत्येककी अनन्त अवयव कृष्टियाँ होती हैं । कृष्टिकरणके कालमें कौन करण होता है इस अर्थ में १६४ संख्याक एक भाष्यगाथा आई है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि कृष्टिकरणके कालमें क्षपकके उसका संक्रम होने तक संज्वलन कषायकी स्थिति और अनुभागका नियमसे अपकर्षणकरण ही होता है, उत्कर्षणकरण नहीं। किन्तु यह नियम केवल संज्वलन कषायपर ही लागू होता है, ज्ञानावरणादि कर्मोपर नहीं ऐसा यहाँ समझना चाहिये । उपशामककी अपेक्षा जो विशेषता है उसका निर्देश करते हुए लिखा है कि कषाय अवस्थाके अन्तिम समय तक संज्वलन कषायका अपकर्षण ही होता है, उत्कर्षण नहीं । यद्यपि इसके प्रथम स्थिति में आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण कालके शेष रहनेपर ही आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति होती है । तो भी द्वितीय स्थिति में स्थित संज्वलन कषायका स्वस्थानकी अपेक्षा अपकर्षणकरण होता है ऐसा इतना अवश्य है कि जब यह जीव उपशान्त कषायसे गिरता है तब उसके सकषाय अवस्थाके प्रथम समय ही सभी करण सम्भव होनेसे शक्तिकी अपेक्षा उत्कर्षण करण कहा गया है। इतनी विशेषता है कि यहाँ उत्कर्षण और अपकर्षणकी अपेक्षा ही विचार किया है। इसी न्यायसे शेष करणोंके सम्बन्धमें भी विचार कर लेना चाहिए। आगे कृष्टि का क्या लक्षण है इस अर्थको प्ररूपणामें १६५ संख्याक तीसरी भाष्यगाथा आई है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए जयघवला टीकामें कृष्टिके लक्षणका तो स्पष्टीकरण किया ही है । स्पर्धक और

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