Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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(१०)
अब इसके आगे लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टिके नीचे निष्पन्न हुई अपूर्व कृष्टियोंकी जो जघन्य कृष्टि है उसमें असंख्यातवाँ भागहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है। उसके बाद अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर अनन्त भागहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता जाता है । पुनः आगे प्रथम समय में रची गई कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवें भागहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है । उसके बाद दूसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक प्रत्येकमें अनन्तवें भागहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है । इसके बाद दूसरी संग्रह कृष्टिकी जो विधि है वही विधि तीसरी संग्रह कृष्टिको जाननी चाहिये | आगे माया, मान, क्रोध सम्बन्धी जो प्रत्येकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ हैं उनमें प्रदेश विन्यासका क्रम पूर्वविधिको ध्यान में रखकर आगमसे जान लेना चाहिये । अतः उक्त प्रकारसे द्वितोय समय में जो सभी कृष्टियों में प्रदेश विन्यास बनता है उसे देखते हुए उष्ट्रकूटश्रेणिकी रचना हो जाती है । (देखो विशेषार्थ पृ० ३४) । यहाँ ११ संधिस्थान और बारह संग्रह कृष्टिस्थान हैं, अतः उनके अनुसार २३ उष्टकूटश्रेणि बन जाती हैं । ( विशेष मूल में देखो ।) कृष्टियों में प्रतिसमय असंख्यातगुणा असंख्यात गुणा द्रव्य दिया जाता है ।
यहाँ अन्तमें संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहुर्त अधिक चार माह प्रमाण होता है तथा शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है । तथा उसी समय मोहनीयका स्थिति सत्कर्म अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष प्रमाण होता है, तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है तथा गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है ।
नाम,
८. कृष्टिवेदक काल :
कृष्टियों को करनेवाला क्षपकजीव पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकोंका वेदन करता है । जिस समय कृष्टिकरण कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब वेद्यमान उदय स्थितिको छोड़कर उसके ऊपर क्रोधसंज्वलनकी एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थिति के शेष रहनेपर कृष्टिकरणकी विधि समाप्त हो जाती है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा कृष्टिकरणके अन्तिन समय में उसकी समाप्ति हो जाती है । परन्तु अनुत्पादानुच्छेदको अपेक्षा तदनन्तर समय में कृष्टियों का वेदन करनेवाले जीवके कालकी अपेक्षा एक आवलि मात्र प्रथम स्थिति के शेष रहनेपर कृष्टिकरण काल समाप्त होता है ।
इसके बाद वह जीव दूसरी स्थितिमेंसे अपकर्षण करके कृष्टियोंका उदयावलिमें निक्षेप करता है । उस समय संज्वलनों की स्थिति चार माह और स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है । तीन घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण तथा नाम, गोत्र और वेदनीयका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण और स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है । तथा क्रोधसंज्वलनका अनुभाग सत्कर्म एक समय कम जो उदयावलि में उच्छिष्टावलि रूपसे प्रविष्ट है वह सर्वघाति है और चारों संज्वलनोंका जो नवबन्ध दो समय कम दो आवलि प्रमाण शेष है वह देशघाति होकर भी स्पर्धकगत है । शेष सब अनुभाग कृष्टिगत है । अर्थात् कुष्टिवेदक कालके प्रथम समयमें नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर चारों संज्वलनोंका सम्पूर्ण ही प्रदेश पुंज कृष्टिरूपसे परिणम जाता है यह इस कथनका तात्पर्य है ।
पुनः उसी कृष्टिवेदक कालके प्रथम समय में कृष्टियोंको प्रवेश कराता हुआ क्रोध संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें से प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है । जो क्रोधवेदक कालके साधिक तीसरे भागप्रमाण होती है । इसका वेदन करनेवाला वह जीव क्रोवसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी जघन्य कृष्टिसे लेकर अधस्तन असंख्यातवें भागको तथा उसकी उपरिम उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष मध्यम असंख्यात बहुभाग प्रमाण कृष्टिय उदयको प्राप्त होती हैं, क्योंकि मघस्तन और उपरि असंख्यात भागकी विषयभूत सदृश धनवालो कृष्टियोंका परिणाम विशेषका अवलम्बन लेकर मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमकर उदय होता है ।