Book Title: Karmgranth tatha Sukshmarth Vicharsar Prakaran
Author(s): Veershekharvijay
Publisher: Bharatiya Prachya Tattva Prakashan Samiti
View full book text ________________ सप्ततिकाभिधः षष्ठः कर्मग्रन्थः १तिन्नेगे एगेगं, तिग मीसे पंच २चउसु तिगऽपुव्वे / ३इक्कार बायरंमि उ, सुहुमे चउ तिन्नि उवसंते॥४७॥५७।। ४छन्नव छक्कं तिग सत्त, दुगं दुग तिग दुगं ति अट्ठ चउ | दुग'छच्चउदुगपणचउ, चउदुगचउपणगएगचऊ / / 48 // 58 // एगेगमह एगे-गमट्ठ छउमत्थकेवलिजिणाणं / / एग चऊ एग चऊ, अट्ठ चऊ दु छक्कमुदयंसा // 46 // 56 // चउ ६पणवीसा सोलस, नव चत्ताला सया य बाणउई। बत्तीसुत्तरछायाल-सया मिच्छस्स बंधविही ६०॥(प्र.) अट्ठ ७सया चउसट्ठी, बत्तीससयाइँ सासणे भेआ / अट्ठावीसाईसु, सव्वाणऽहिग (छन्नउई ॥६१।।(प्र.) इगचत्तिगार बत्तीस, छसय इगतीसिगारनवनउई / सतरिगसि गुतीसचउद. इगारचउसट्टि मिच्छुदया ॥६२॥(प्र.) बत्तीस 1 दुन्नि अट्ठय. बासीइसया य पंच नव उदया / ११बारहिआ तेवीसा, १२बावनिक्कारस सया य ॥६३।।(प्र.) दो छक्कट्ठ चउक्कं, पण १३नव इक्कार छक्कगं उदयां / ५४नेरइआइसु १५सत्ता,तिपंच इक्कारस चउक्कं / / 50||64 / / ' १६इग विगलिंदिअ सगले, पण पंच य अट्ठ बंधठाणाणि / पण १७छक्किक्कारुदया, पण पण बारस य संताणि / / 51 // 65 / / १८इअ कम्मपगइठाणाणि, सुठ्ठ बंदय संतकम्माणं / १गइआइएिह अट्ठसु, २०चउप्पयारेण नेयाणि // 52 // 66 / / 21 1. तिण्णगे" इत्यपि / 2. "अयमेव पाठः समीचानोऽस्ति / तथाऽप्यत्र चूर्णिकारैः टीकाकृद्भिश्च “च उसु नियट्टिर तिन्नि" इति पाठो विवृतः / हस्तलिखितप्रतौ पुनः "पंच" इतिशब्दो नास्ति तथा “च उसु पण नियट्रितिगं" इति पाठ उपलभ्यते / 3. "एक्कार बायरम्मी" इत्यपि / 4. "छण्णाव" इत्यपि / 5 "छक्क चऊ .... पणेगचऊ / / 58 // " इत्यपि / 6 "पणु०" इत्यपि / 7. “य सय चोवढेि बत्तीससया य" इत्यपि / 8. "छण्णउई” इत्यपि / 9. इयं गाथा हस्तलिखितप्रतौ नास्ति मुद्रितप्रस्तकेषूपलभ्यते / 10. "दोन्नि" इत्यपि / 11 बारहिगा' इत्यपि / 12. "बावन्ने०" इत्यपि / 13. "नवगेक्कार" इत्यपि / "नवएक्कार" इत्यपि वा / 14 "र" इत्यपि। 15 "संता" इत्यपि / 16 "इगि" इत्यपि। 17 "छक्के०" इत्यपि। 18 "इय कम्मपगडि०" इत्यपि, "इय कम्मपगइठाणाई" इत्यपि / 16 "गइयाइएसु". इत्यपि, "गइयाइएहि" इत्यपि / 20 “च उप्पगारेण" इत्यपि। 21 "गइइंदिए य काए जो वेए कमायनाणे य / संजमदंसणलेसा भवसम्मे सन्निआहारे // संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च वित्तफुसणा य। कालंतरं च भावो अप्पाबहुयं च दायव्वं / // इति गाथाद्वयं 66-67 तमगाथायोर्मध्येऽधिकतया हस्तलिखितप्रतौ प्रक्षिप्तं दृश्यते /
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