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( ७ ) "शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे" अर्थात् "यह सूखा पेड़ आगे खड़ा है" | तब उन्होंने वही प्रश्न साहित्यिक पुत्र से किया तो उन्होंने उत्तर दिया-"नीरसतरुरिह विलसति पुरतः" अर्थात् यह नीरस वृक्ष आगे शोभित हो रहा है"। वर्णनशैलीसे प्रभावित होकर बाणभट्टने उन्हीं पुत्रको अवशिष्ट कथांशको सुनाकर कादम्बरीको पूर्ण करनेके लिए आज्ञा दी। वाणभट्टके पूर्वोक्त पुत्रका नाम कुछ लोग भूषणभट्ट और कुछ लोग पुलिन्दमट्ट वा पुलिनभट्ट कहते हैं। परन्तु दशम शताब्दीके तिलकमञ्जरीकार धनपालने बाणभट्टकी प्रशंसाके प्रसङ्गमें
"केवलोऽपि स्फुरन्बाणः करोति विमदान्कवीन् ।
किं पुनः क्लप्तसन्धानः पुलिन्दकृतसन्निधिः ॥" । ऐसा लिखकर बाणपुत्रका नाम "पुलिन्द" ऐसा सङ्कत किया है। यद्यपि बाणभट्टकी प्रतिभाप्रसूत कादम्बरीके पूर्वार्द्धका जो वर्णनसौष्ठव और विशेषता है वह उत्तरभागमें कहाँ। पर उसमें भी वर्णनकी विचित्रता और कमनीयता है. इसका अपलाप करना अन्याय होगा। कादम्बरीके उत्तरार्द्धकार बाणभट्टपुत्र कितने निरभिमान और पितृभक्त थे, यह बात उनके इस पद्यसे जानी जाती है
“याते दिवं पितरि तद्वचसैव साध विच्छेदमाप भुवि यस्तु कथाप्रबन्धः ।
दुःखं सतां तदसमाप्तिकृतं विलोक्य प्रारब्ध एव च मया न कवित्वदात् ॥
वे ही भूषणमट्ट कादम्बरीको प्रशंसाके साथ-साथ उसको पूतिके लिए अपनी अयोग्यता समझकर किस प्रकार सङ्कोच जताते हैं
"कादम्बरीरसभरेण समस्त एव मत्तो न किञ्चिदपि चेतयते जनोऽयम् ।
भीतोऽस्मि यन्न रसवर्णविजितेन तच्छेषमात्मवचसाऽप्यनुसन्दधानः ॥७॥
कादम्बरीका कथानक गुणाढ्यकी पैशाची भाषामें संगृहीत बृहत्कथासे लिया गया है। बाणभट्टने उसे अपने कल्पनाकौशलसे पात्रोंके नाम आदिमें और तत्तत्स्थलमें परिवर्तन कर अतिशय मनोहर रूपमें परिष्कृत किया है। इसमें गौडो रीतिका उत्कृष्ट प्रदर्शन है। "शब्दाऽर्थयोः समो गुम्फः पाञ्चाली रीतिरिष्यते।" सूक्तिमुक्तावलीस्थ कलणकी इस उक्तिके अनुसार पाञ्चाली रीतिका मी इसमें अच्छी तरह परिपाक देखा जाता है। "ओजःसमासभूयस्त्वमेतद्गद्यस्य जीवितम् (१-८०)" दण्डीके काव्यादर्शमें स्थित इस उक्तिके अनुसार गद्यकाव्यके जीवन स्वरूप ओज गुण और समासबाहुल्य इसमें अनुपम रूपमें परिलक्षित होते हैं। यह दशकुमारचरितकी तरह पात्रोंकी बहुलतासे कथानक न अव्यक्तप्राय है, न वासवदत्ताके समान प्रत्यक्षर श्लेषसे उद्वेगकारक है, न तो हर्षचरितके समान क्लिष्ट पदोंकी भरमारसे अर्थबोधमें क्लेशकारक है, प्रत्युत उत्तरोत्तर कथाभागके ज्ञानकी उत्सुकता और वर्णनकी प्रचुरतासे मनोरञ्जन होनेसे लम्बे-लम्बे अवतरणोंके होनेपर भी इसमें धर्यके बांधका मन नहीं होता है।
हर्षचरित और कादम्बरी ये दोनों ग्रन्थ भारतवर्षकी सातवीं शताब्दीके राष्ट्रिय और सामाजिक चरित्रको सजीवरूपसे चित्रित करते हैं। इन दोनों ग्रन्थोंके सिवाय बाणभट्टके मुकुटताडितक, शारदचन्द्रिका और पार्वतीपरिणय इन तीन रूपकोंका उल्लेख पाया जाता है। उनमें पहलेके दो रूपक उपलब्ध नहीं हैं, तीसरा उपलब्ध तो है परन्तु उसमें बाणभट्टकी शैली नहीं पाई जाती है। इनके अतिरिक्त, शिवाऽष्टक और चण्डीशतक नामके दो स्तोत्र-ग्रन्थ भी बाणभट्टके बतलाये जाते हैं।
संस्कृत साहित्य में पद्यकाव्योंकी अपेक्षा गद्यकाव्यकी विरलता है। इसका कारण उसके वर्णनके निर्वाहमें काठिन्य प्रतीत होता है। पद्यकाव्यमें कुछ न्यूनता प्रतीत होनेपर छन्द आदिकी