Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र ••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• देवों के भेद का कथन कर देना चाहिये यावत् अनुत्तरोपपातिक देव पांच प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. विजय २. वैजयंत ३. जयंत ४. अपराजित और ५. सर्वार्थसिद्ध। यह अनुत्तरोपपातिक देवों का वर्णन हुआ।
विवेचन - भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक, देवों के ये चार भेद बताने के बाद इनके अवान्तर भेदों के लिये सूत्रकार ने प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद की भलामण दी है। प्रज्ञापना सूत्र में देवों के अवान्तर भेद इस प्रकार कहे गये हैं -
वनवासी देवों के १० भेद - भवनवासी देवों के दस भेद इस प्रकार हैं - १. असुरकुमार २. नागकुमार ३. सुपर्णकुमार ४. विद्युत्कुमार ५. अग्निकुमार ६. द्वीप कुमार ७. उदधिकुमार ८. दिशाकुमार ९. पवनकुमार. १०. स्तनितकुमार। इन दस के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से भवनवासी देवों के २० भेद होते हैं।
वाणव्यंतर देवों के ८ भेद - १. किन्नर २. किंपुरुष ३. महोरग ४. गंधर्व ५. यक्ष ६. राक्षस ७. भूत ८. पिशाच। इन आठ के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से वाणव्यंतर देवों के १६ भेद हुए।
ज्योतिषी देवों के ५ भेद - १..चन्द्र २. सूर्य ३. ग्रह ४. नक्षत्र और ५. तारा। इन पांच के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से ज्योतिषी देवों के दस भेद हुए।
वैमानिक देवों के भेद - वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. कल्पोपपन्म और २. कल्पातीत। कल्पोपपन्न देवों के १२ भेद इस प्रकार हैं - १. सौधर्म २. ईशान ३. सनत्कुमार ४. माहेन्द्र ५. ब्रह्मलोक ६. लान्तक ७. महाशुक्र ८. सहस्रार ९. आनत १०. प्राणत ११. आरण और १२. अच्युत। कल्पातीत देव दो प्रकार के कहे गये हैं - १. ग्रैवेयक २. अनुत्तरोपपातिक। ग्रैवेयक के ९ भेद इस प्रकार हैं - १. अधस्तनाधस्तन २. अधस्तन मध्यम ३. अधस्तन उपरितन ४. मध्यम अधस्तन ५. मध्यम-मध्यम ६. मध्यम-उपरितन ७. उपरिम-अधस्तन ८. उपरिम-मध्यम और ९. उपरितन-उपरितन। अनुत्तरोपपातिक देव पांच प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. विजय २. वैजयंत ३. जयंत ४. अपराजित और ५. सर्वार्थसिद्ध। इन सभी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो भेद होते हैं।
कहि णं भंते! भवणवासि देवाणं भवणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! भवणवासी देवा परिवसंति?
गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए, एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासाइया, त(ए)त्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवंतित्तिमक्खाया, तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति-असुरा णाग सुवण्णा य जहा पण्णवणाए जाव विहरंति॥११६॥
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