Book Title: Jina Bhakti
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ उपोद्घात जिन भक्ति की महिमा जिन-भक्ति मुक्ति का प्रधान साधन है । भक्ति की शक्ति अकल्पनीय एवं असीम है । भक्ति की अपूर्व शक्ति के द्वारा समस्त प्रकार की प्राध्यात्मिक साधना का विकास होता है । भक्ति की शक्ति के द्वारा ही भक्तात्मा को ऐसी युक्ति सूझ जाती है जो उसे मुक्ति का साक्षात्कार कराती है । अनादि काल से बहिरात्म भाव में रहा हुअा जीव श्री जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति के प्रभाव से अन्तरात्म-भाव प्राप्त करके क्रमशः परमात्म भाव की ओर उन्मुख होता है। जिन-भक्ति अर्थात "श्री जिनेश्वर परमात्मा ही केवल मेरे और समस्त जीवों के परम हित-चिन्तक, परम हित-कारक, सर्व चिन्ता-चूरक, सर्व-कार्य-पूरक, भव-सागर-तारक तथा मोक्ष-पद-दायक हैं. इस प्रकार की अटल श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रभु के प्रति हृदय में अनन्त सम्मान एवं पादर प्रकट करना । परमात्म-भक्ति ही आत्मा को परमात्मा बनाने वाली है-इस सत्य की वास्तविक श्रद्धा जिस व्यक्ति के हृदय में स्थिर हो जाती है, अोतप्रोत हो जाती है; उसे परमात्मा को प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य कोई अभिलाषा अथवा कामना होती ही नहीं है। भक्ति की तन्मयता की आनन्दानुभूति करने वाले भक्त को अन्य वस्तुओं की अपेक्षा प्रभु-भक्ति ही सर्वाधिक प्रिय एवं श्रेष्ठ प्रतीत होती है ।। प्रत्येक व्यक्ति में परमात्म-स्वरूप विद्यमान है, छिपा हुआ है । वह प्रकट तब ही होता है, जब आत्मा परमात्मा की शरण में जाती है, वह उनकी भक्ति में एकरूप, एकात्म हो जाती है, उनकी आज्ञा को रोम-रोम में व्याप्त कर लेती है। शाश्वत सुखमय, अनन्त आनन्दमय चिन्मय शुद्ध आत्म-स्वरूप को जिन भक्ति ] [ ix Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.


Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 142