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वीर-शासन और उसका महत्त्वं
वीर-शासन
अन्तिम तीर्थकर भगवान वीरने आजसे २४९८ वर्ष पूर्व विहार प्रान्तके विपुलाचल पर्वतपर स्थित होकर श्रावण कृष्णा प्रतिपदाकी पुण्यवेलामे, जब सूर्यका उदय प्राचीसे हो रहा था, ससारके सतप्त प्राणियोके सतापको दूरकर उन्हें परम शान्ति प्रदान करनेवाला धर्मोपदेश दिया था। उनके धर्मोपदेशका यह प्रथम दिन था। इसके बाद भी लगातार उन्होंने तीस वर्ष तक अनेक देश-देशान्तरोमें विहार करके पथभ्रष्टोको सत्पथका प्रदर्शन कराया था, उन्हें सन्मार्ग पर लगाया था। उस समय जो महान् अज्ञान-तम सर्वत्र फैला हमा था. उसे अपने अमत-मय उपदेशो द्वारा दूर किया था, लोगोकी भूलोको अपनी दिव्य वाणीसे बताकर उन्हें तत्त्वपथ ग्रहण कराया था, सम्यकदृष्टि बनाया था। उनके उपदेश हमेशा दया एव अहिंसासे ओत-प्रोत हआ करते थे। यही कारण था कि उस समयकी हिंसामय स्थिति अहिंसामें परिणत हो गयी थी और यही वजह थी कि इन्द्रभूति जैसे कट्टर वैदिक ब्राह्मण विद्वान् भी, जिन्हें बादको भगवान वीरके उपदेशोंके सकलनकर्ता--मुख्य गणधर तकके पदका गौरव प्राप्त हुआ है, उनके उपाश्रयमें आये और अन्तमें उन्होने मुक्तिको प्राप्त किया। इस तरह भगवान वीरने अवशिष्ट तीस वर्षके जीवनमें सख्यातीत प्राणियोका उद्धार किया और जगतको परम हितकारक सच्चे धर्मका उपदेश दिया। वीरका यह सब दिव्य उपदेश ही 'वीरशासन' या 'वीरतीर्थ' है और इस तीर्थको चलाने-प्रवृत्त करने के कारण ही वे 'तीर्थकर' कहे जाते हैं। वर्तमानमें उन्हीका शासन-तीर्थ चल रहा है, । यह वीर-शासन क्या है ? उसके महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त कौनसे है ? और उसमें क्या-क्या उल्लेखनीय विशेषतायें हैं ? इन बातोसे बहुत कम सज्जन अवगत है । अत. इन्ही बातोंपर सक्षेपमें कुछ विचार किया जाता है ।
समन्तभद्र स्वामीने, जो महान् ताकिक एव परीक्षाप्रधानी प्रसिद्ध जैन आचार्य थे और जो आजसे लगभग १८०० वर्ष पूर्व हो चुके हैं, भगवान महावीर और उनके शासनकी सयुक्तिक परीक्षा एव जांच की है-'यक्तिमद्वचन' अथवा 'यक्तिशास्त्राविरोधिवचन' और 'निर्दोषता' की कसौटीपर उन्हें और उनके शासनको खब कसा है। जब उनकी परीक्षामें भगवान् महावीर और उनका शासन सौटची स्वर्णकी तरह ठीक सावित हुये तभी उन्हें अपनाया है। इतना ही नही, किन्तु भगवान् वीर और उनके शासनकी परीक्षा करने के लिये अन्य परीक्षको तथा विचारकोको भी आमन्त्रित किया है-निष्पक्ष विचारके लिये खुला निमत्रण दिया है।' समन्तभद्र स्वामीके ऐसे कूछ परीक्षा-वाक्य थोडे-से ऊहापोहके साथ नीचे दिये जाते है
देवागमनभोयानचामरादिविभूतय । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ।।
आप्तमीमासा १।
१ युक्त्यनुशासन, का० ६३ ।