Book Title: Jain Tattvagyan Mimansa
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 373
________________ जम्बूजिनाष्टकम् यदीयवोधे सकला पदार्था समस्तपर्याययुता विभान्ति। जितारिकर्माष्टकपापपुञ्जो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ॥१॥ अभूत्कलावन्तिमकेवली यो निरस्तसंसारसमस्तमाय । समुज्ज्वलत्केवलबोधदीपो जिनोऽस्तु जम्बूर्मममार्गदर्शी ।।२।। विहाय यो बाल्यवयस्यसीमान्भुजङ्गभोगान्करुणान्तरात्मा। ' प्रपन्न-निर्वेद-दिगम्बरत्वो जिनोऽस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ॥३॥ कृते विवाहेऽपि धृतो न कामो अणोरणीयानपि भोगवगें । निजात्महितभावनया प्रबुद्धो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ॥४॥ वार्ती यदीया विनिशम्य नक्त चौरोऽपि चौरत्वमपास्य यस्य । सम्पर्कमासाद्य मुनिर्बभूव जिनोऽस्तु जम्वूर्मम मार्गदर्शी ॥५॥ जिनेन्द्रदीक्षा सुखदा गृहीत्वा निहत्य य. कर्मचतुष्टय च । य. केवली भव्यहितोऽन्तिमोऽसौ जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ।।६।। हितोपदेश कुर्वन् हितैषी समानयद्धर्मपथे सुलोकान् । समन्ततो यो विजहार लोके जिनोऽस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ॥७॥ स्वयवृतो मुक्तिरमाविलासै सद्यो विमुक्तो मथुरापुरीत । स विश्वचक्षविवधेन्द्रवन्द्यो जिनोऽतु जम्बूमम मार्गदर्शी ॥८॥ १ जव मैं सन् १९४०-४२ में मथुराके ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम (जैन गुरुकुल) में दो वर्ष प्राचार्य रहा, तभी यह 'जम्बू-जिनाष्टक' रचा था। आश्रमके छात्र इसे प्रार्थनाके रूपमें शामको मन्दिरजीमें बोलते थे । यद्यपि जम्बूस्वामीका मोक्ष विपुलगिरि (राजगृह, विहार) से हुआ है, तथापि चौरासी, मथुरासे उनके मोक्ष होनेकी अनुश्रुति होनेसे उसी आधारपर यह रचा गया था । । २ विद्युच्चर । *३४५ - न-४४

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403