Book Title: Jain Tattvagyan Mimansa
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 380
________________ अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विध्य घातिघनवद्विबन्धनः । विबन्धनस्थानमवाप शङ्करो निरन्तरायोरुसुखानुवन्धनम् ।। हरिव० ६६ ॥ १५, १६, १७ ॥ 'वीर जिनेन्द्र समस्त भव्यसमुदायको सतत सवोधित करके अन्तमें पावानगरी पहुंचे और उसके सुन्दर उद्यानवनमें कार्तिकवदी चउदसकी रात और अमावस्याके सुप्रभात समयमें, जव कि चौथे कालके साढे तीन मास कम चार वर्ष अवशेष थे, स्वातिनक्षत्रमें योग निरोध कर अघातियाकर्मोको घातियाकर्मोकी तरह नष्ट कर बन्धनरहित होकर बन्धनहीन (स्वतत्र) और निरन्तराय महान सुखके स्थान मोक्षको प्राप्त हुए। आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि ( ई० ५ वी शती) का 'निर्वाणभक्ति' गत निम्न उल्लेख भी यही बतलाता है पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थित स मुनिः । कार्तिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरज ॥ इस प्रकार इन शास्त्रीय प्रमाणोसे स्पष्ट है कि भ० महावीरका कार्तिक वदी चउदसकी रात और अमावस्याके सुवह, जव कुछ अन्धेरा था, निर्वाण हुआ था और उसी समय उनका निर्वाणोत्सव मनाया गया था। इस तरह 'वीर-निर्वाण' पर्व प्रचलित हआ और जो माज भी सर्व मनाया जाता है। भ० महावीरके निर्वाणके समयका पता जनसमुदायको पूर्वदिनसे ही विदित हो चुका था और इसलिए वे सब वहाँ पहलेसे ही उपस्थित थे । इनमें अठारह गणराज्योके अध्यक्ष, विशिष्टजन, देवेन्द्रो, साधारण देवो और मनुष्योके समूह मौजूद थे। समस्त (११) गणधर, मुनिगण, आर्यिकाएँ, श्रावक और श्राविकाएं आदि भी विद्यमान थे । जो नही थे, वे भी भगवान्के निर्वाणका समाचार सुनते ही पहुंच गये थे। बिजलीकी भांति यह खबर सर्वत्र फैल गयी थी। भगवान् बुद्धके प्रमुख शिष्यने उन्हें भी यह अवगत कराया था कि पावामें अभी-अभी णिग्गथनातपुत्त (महावीर) का निर्वाण हुआ। प्रदीपोका प्रज्वलन उस समय प्रत्यूषकाल होनेसे कुछ अधेरा था और इसलिए प्रकाश करनेके लिए रत्नों और घृतादिके हजारों प्रदीप प्रज्वलित किये गये। आचार्य जिनसेनके हरिवशपुराणमें स्पष्ट उल्लेख है कि उस समय ऐसा प्रकाश किया गया, जिससे पावानगरी चारो ओरसे आलोकित हो गयी। यहाँ तक कि आकाशतल भी प्रकाशमय-ही-प्रकाशमय दिखाई पड रहा था । यथा ज्वलत्पदीपावलिकया प्रवृद्धया सुरासुरै दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्तत प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ।। तथैव च श्रेणिकपूर्वभूभृत प्रकृत्य कल्याणमद सहप्रजाः। प्रजज्मुरिन्द्राश्च सुरैर्यथा पथ प्रयाचमाना जिनबोधिमर्थिन । -हरिवं० ६६।१९,२० । वीर-निर्वाण और दीपावली हरिवशपुराणकार (९वी शती) ने यह भी स्पष्ट उल्लेख किया है कि इसके पश्चात् भगवान् महावीरके निर्वाण-लक्ष्मीको प्राप्त करनेसे इस पावन निर्वाण-दिवसको स्मृतिके रूपमें सदा मनानेके लिए भक्त जनताने 'दीपावली' के नामसे एक पवित्र सार्वजनिक पर्व ही संस्थापित एव सुनियत कर दिया-अर्थात् - ३५२ -

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