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स्वामी समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक क्षेत्रके जैन दर्शन क्षेत्रमें युग-प्रवर्तकका कार्य किया है। उनके पहले जैन दर्शनके प्राणभूत तत्त्व 'स्याद्वाद' को प्राय आगमरूप ही प्राप्त था और उसका आगमिक तत्त्वोंके निरूपणमें ही उपयोग होता था तथा सीधी-साधी विवेचना कर दी जाती थी। विशेष युक्तिवाद देनेकी आवश्यकता नहीं होती थी। किन्तु समन्तभद्रके समयमें उस युक्तिवादको आवश्यकता महसूस हुई। दूसरीतीसरी शताब्दीका समय भारतवर्षके सास्कृतिक इतिहासमें अपूर्व दार्शनिक क्रान्तिका रहा है, इस समय सभी दर्शनोमें अनेक क्रान्तिकारी विद्वान् पैदा हुए हैं। यह हम उस समयके दार्शनिक ग्रन्थोंसे ज्ञात कर सकते हैं। समन्तभद्रको आप्तमीमासा इसकी साक्षी है, जिसमें भावकान्त, अभावकान्त आदि अनेक एकान्तोंकी चर्चा और उनकी समालोचना उपलब्ध है। इसीलिए समन्तभद्रके कालको जैन न्यायके विकासका मादिकाल कहा जाता है। इस तरह इस आदिकाल अथवा समन्तभद्र कालमें जैन न्यायकी एक योग्य और उत्तम भूमिका तैयार हो गयी थी।
उक्त भूमिकापर जैन न्यायका उत्तु ग और सर्वांगपूर्ण महान् प्रासाद जिस कुशल और तीक्ष्णबुद्धि ताकिक-शिल्पीने खडा किया, वह है अकलक । अकलंकके कालमें भी समन्तभद्रसे कही अधिक जबर्दस्त दार्शनिक मुठभेड हो रही थी। एक तरफ शब्दाद्वैतवादो भर्तृहरि, प्रसिद्ध मीमासक कुमारिल, न्यायनिष्णात उद्योतकर प्रभृति वैदिक विद्वान् अपने पक्षोपर आरूढ थे, तो दूसरी और धर्मकीर्ति और उनके तर्कपट शिष्य एव व्याख्याकार प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि आदि बौद्ध तार्किक अपने पक्षपर दढ़ थे। शास्त्रार्थों और शास्त्र निर्माणकी पराकाष्ठा थी। प्रत्येक दार्शनिकका प्रयत्न था कि वह जिस किसी तरह अपने पक्षको सिद्ध करे और परपक्षका निराकरण कर विजय प्राप्त करे। इतना ही नही, परपक्षको असद् प्रकारोंसे पराजित एव तिरस्कृत भी किया जाता था। विरोधीको 'पशु', 'मह्रीक' जैसे गहित शब्दोंसे व्यव हृतकर उसके सिद्धान्तोको तुच्छ प्रकट किया जाता था। यह काल जहाँ तर्कके विकासका मध्याह्न माना जाता है वहां इस कालमें न्यायका बडा उपहास भी हमा है। तत्त्वके सरक्षणके लिए छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे असद् उपायोंका खुलकर प्रयोग करना और उन्हें शास्त्रार्थका अग मानना इस कालकी देन बन गयो । क्षणिकवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि पक्षोका समर्थन इस कालमें घडल्लेसे किया गया और कट्टरतासे इतरका निरास किया गया ।
तीक्ष्णदष्टि अकलङ्कने इस स्थितिका अध्ययन किया और सभी दर्शनोका गहरा एव सूक्ष्म अभ्यास किया। इसके लिए उन्हें कांची, नालन्दा आदिके तत्कालीन विद्यापीठोमें प्रच्छन्न वेपमें रहना पडा । समन्तभद्र द्वारा स्थापित स्याद्वादन्यायकी भूमिकाको ठीक तरह न समझनेके कारण दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, उद्योतकर, कुमारिल आदि बौद्ध-वैदिक विद्वानोने पक्षाग्रही दृष्टिका ही समर्थन किया था तथा जैन दर्शनके स्याद्वाद, अनेकान्त आदि सिद्धान्तोपर आक्षेप किये थे । अत अकलङ्कने महाप्रयास करके तोन अपूर्व कार्य किये। एक तो शास्त्रार्थों द्वारा जैन दर्शनके सही रूपको प्रस्तुत किया और आक्षेपोंका निराकरण किया। दूसरा कार्य यह किया कि स्याद्वादन्यायपर आरोपित दूषणोंको दूर कर उसे स्वच्छ बनाया और तीसरा कितना ही नया निर्माण किया । यही कारण है कि उनके द्वारा निर्मित ग्रन्थों में चार ग्रन्थ केवल न्यायशास्त्रपर ही लिखे गये हैं, जिनमें विभिन्न वादियों द्वारा दिये गये सभी दूपणोका परिहार कर उनके एकान्त सिद्धान्तों की कही समीक्षा की गयी है और जैन न्यायके जिन आवश्यक उपादानोका जैन दर्शनमें विकास नहीं हो सका था, उनका उन्होंने विकास किया अथवा उनकी प्रतिष्ठा की है। उनके वे महत्त्वपूर्ण न्यायग्रन्थ निम्न
१ न्यायसू० १११११, ४।२।५०, १।२।२, ३, ४ आदि और उनकी व्याख्याएँ ।