Book Title: Jain Tattvagyan Mimansa
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 235
________________ (३) समय ___ (१) ब्रह्मदेवने वसुनन्दिके उपासकाध्ययनसे दो गाथाएं (न० २३ व २४) बृहद्रव्यसग्रहवृत्ति (पृ० ७६) में उधत की है और उनका विस्तत व्याख्यान किया है। वसुनन्दिका समय विक्रम स० ११५० है। अत ब्रह्मदेव वसुनन्दि वि० ११५०) से पूर्ववर्ती नही है-उनके उत्तरवर्ती हैं। ____ (२) प० आशाधरजी (वि० स० १२९६) ने अपने सागारधर्मामृत (१-१३) में ब्रह्मदेवकी बृहद्द्रव्यसग्रहवृत्ति (पृ० ३३-३४) का अनुकरण किया है और उनके 'तलवरगृहीततस्कर' का उदाहरण ही नहीं अपनाया, अपितु उनके शब्दो और भावोको भी अपनाया है। अतएव ब्रह्मदेव १० आशाधरजी (वि० स० १२९६) से पूर्ववर्ती है। (३) ब्रह्मदेवने सम्यग्दृष्टिके पुण्य और पाप दोनोको हेय बतलाते हुए दृष्टान्तके साथ जो इस विषय की गद्य दी है उसका अनुकरण जयसेनने पञ्चास्तिकायकी तात्पर्यवृत्तिमें किया है। इसके कई आधार हैं। पहले, जयसेनने यहां ब्रह्मदेवके दृष्टान्तको तो लिया ही है, उनके शब्दो और भावोको भी अपनाया है। १ तुलना कीजिए - (क) — निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखादिपरद्रव्य हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते पर किन्तु भरेखादिसदशक्नोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्त तलवरगहीततस्करवदात्मनिन्दासहित सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टलक्षणम् । -ब्रह्मदेव, वृ० द्र० वृ०, पृ० ३३-३४ । (ख) भूरेखादिसदृक्कपायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञया, हेय वैषयिक सुख निजमुपादेय त्विति श्रद्धत् । चौरो मारयितु धृतस्तलवरेणेवात्मनिन्दादिमान्, शर्माक्ष भजते रुजत्यपि पर नोत्तप्यते सोऽप्यप ।। -आशाघर, सागारधर्मामृत, १-१३ । २ (क) यथा कोऽपि देशान्तरस्थमनोहरस्त्रीसमीपादागतपुरुषाणा तदर्थ दानसन्मानादिक करोति तथा सम्यग्दृष्टिरप्युपादेयरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणामहत्सिद्धाना तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधना च परमात्मपदप्राप्त्यर्थं विषयकषायवर्जनार्थं च दानपूजादिना परमभक्ति करोति तेन च स्वर्गे देवेन्द्रलौकान्तिकादिविभूति प्राप्य विमानपरीवारादिसपद जीर्णतृणमिव गणयन् पञ्चमहाविदेहेषु गत्वा पश्यति । किं पश्यति, इति चेत्-तदिद समवसरण, त एते वीतरागसर्वज्ञा , त एते भेदाभेदरत्नत्रयाराधका गणधरदेवादयो ये पूर्व श्रूयन्ते इति मत्वा विशेषेण दृढधर्ममतिर्भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मनोऽविरतावस्थामपरित्यजन् भोगानुभवेऽपि सति धर्मध्यानेन काल नीत्वा स्वर्गादागत्य तीर्थंकरादिपदे प्राप्तेऽपि पूर्वभवभावितविशिष्टभेदज्ञानवासनाबलेन मोह न करोति, ततो जिनदीक्षा गृहीत्वा पुण्यपापरहितनिजपरमात्मध्यानेन मोक्ष गच्छतीति ।' -बृह० द्र० वृ०, पृ० १५९-१६० । (ख) 'यथा कोपि रामदेवादिपुरुषो देशान्तरस्थसीतादिस्त्रीसमीपादागताना पुरुपाणा तदर्थ दानसन्मानादिक करोति तथा मुक्तिस्त्रीवशीकरणार्थ निर्दोपपरमात्मना तीर्थकरपरमदेवाना तथैव गणधरदेवभरतसगररामपाण्डवादिमहापुरुषाणा चाशुभरागवर्जनाचं शुभधर्मानुरागेण चरित पुराणादिक श्रृणोति भेदाभेदरत्नत्रयभावनारतानामाचार्योपाध्यायादीना गृहस्थावस्थाया च पुननिपूजादिक करोति च तेन -२१३

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