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रहता, पण्डितजी उसे पूरा कर जाते, तो वह अकेला ही हजार ग्रन्थोको पढनेको जरूरतको पूरा कर देता । फिर भी वह जितना है उतना भी गीतादि जैसा महत्त्व रखता है। पण्डितजीने इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त पुरुषार्थसिद्धयपाय आदि ग्रन्थोंपर भी टीकाएं लिखी हैं और इस तरह वीरसेनस्वामीकी तरह इनकी समग्न रचनाओका प्रमाण लगभग एक लाख श्लोक जितना है । ऐसे असाधारण विद्वान्को प्रतिभामूर्ति एव दूसरे वीरसेनस्वामी कहना कोई अत्युक्ति नहीं है। सिर्फ अन्तर यही है कि एक आचार्य है तो दूसरे गृहस्थ । एकने स्वतत्र सस्कृत व प्राकृतमें टीकाएँ लिखी तो दूसरेने पूर्वाधारसे राष्ट्रभाषा हिन्दीमें । लेखनका विस्तार, समालोचकता, शकासमाधानकारिता, दार्शनिक-विज्ञता, सिद्धान्त-मर्मज्ञता, वीतरागधर्मकी अनन्य-उपासकता तथा परोपकारभावना दोनो विद्वानों में निहित हैं। दोनोका साहित्य ज्ञाननिधि है और दोनो ही अपने-अपने समयके खास युगप्रवर्तक है। अतएव पण्डित टोडरमलजीको आचार्य अथवा ऋषि नही तो आचार्यकल्प अथवा ऋषिकल्प तो हम कह ही सकते हैं। ___ पण्डितजी इतने प्रतिभावान् होते हुए भी जब अपनी लघुता प्रकट करते हैं और अपनेको 'मन्द बुद्धि'
है तो उनकी सात्त्विकता, प्रामाणिकता और निरभिमानताका मूर्तिमान चित्र सामने आ जाता है। उनकी इन पक्तियोको पढिये
"जातै गौम्मटसारादि ग्रन्थनि वि. सदष्टिनि करि जो अर्थ प्रकट किया है सो सदृष्टिनिका स्वरूप जाने विना अर्थ जाननेमे न आवे तातै मेरी मति अनुसारि किचिन्मात्र अर्थ सदृष्टि निका स्वरूप कहीं हौं तहाँ जो किछू चूक होइ सो मेरि मद बुद्धिकी भूलि जानि बुद्धिवत कृपा करि शुद्ध करियो"-अर्थसदृष्टिअधिकार ।
यही कारण है कि साधर्मी भाई रायमलके, जो पण्डितजीके गोम्मटसारादिकी टीका लिखने में प्रेरक थे और जैन शासनके सार्वत्रिक प्रचारको उत्कट भावनाको लिये हुए एक विवेकवान धार्मिक सत्पुरुष थे, लिखे अनुसार पण्डितजीके पास देश-देशके प्रश्न आते थे और वे उनका समाधान करके उनके पास भेजते थे। इनकी इस परिणतिका ही यह प्रभाव था कि उस समय जयपुरमें जो जैनधर्मकी महिमा प्रवृत्त हो रही थी वह रायमल साधर्मीक शब्दोमें 'चतुर्थ कालवत्' थी।
यदि इस प्रतिभामूति विद्वानका उदय न हआ होता तो आज जो गोम्मटमारादि ग्रन्थोंके अभ्यासी विद्वान् व स्वाध्यायप्रेमी दिख रहे हैं वे शायद एक भी न दिखते और जययुर बादको प० जयचन्दजी, सदासुखजी आदि विद्वन्मणियोको पैदा न कर पाता। इस सबका श्रेय जयपुरके इसी महाविद्वानको है। साधर्मी भाई रायमलने यह ठीक ही लिखा है कि-"अबारके अनिष्ट काल विष टोडरमलजीके ज्ञानका क्षयोपशम विशेष भया । ए गोम्मटसार ग्रन्थका बचना पांच से बरस पहली था। ता पीछे बुद्धिकी मदता करि भाव सहित बचना रहि गया। अब फेरि याका उद्योत भया । बहुरि वर्तमान काल विष यहाँ धर्मका निमित्त है
यहाँ धर्मका निमित्त है तिसा अन्यत्र नाही।"
पण्डित टोढरमलजी भारतीय साहित्य और जैन वाङ्मयके इतिहासमें एक महाविद्वान् और महासाहित्यकारके रूपमें सदा अमर रहेंगे । उनके सिद्धान्तमर्मज्ञता, समालोचकता और दार्शनिक अभिज्ञता आदि कितनं ही ऐसे गुण हैं, जिनपर विस्तृत प्रकाश डालना चाहता था, परन्तु समयाभाव और शीघ्रताकै कारण उसे इस समय छोडना पड रहा है। वस्तुत प० टोडरमलजीपर एक स्वतत्र पुस्तक ही लिखी जाना चाहिए. जैसी तुलसीदासजी आदिपर लिखी गई है।
१-२ देखो, 'साधर्मी भाई रायमल' लेखगत उनका आत्मपरिचयात्मक लेखपत्र, वीर-वाणी वर्ष १,
अक २।
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