Book Title: Jain Tattvagyan Mimansa
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 355
________________ इसी बातको एक दूसरी जगह भी इस प्रकार बतलाया गया है - नावश्यं नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः । देहो नष्ट. पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभ. ॥ "नियमसे नाश होनेवाले शरीरके लिये अभीष्ट फलदायी धर्मका नाश नही करना चाहिये; क्योकि शरीरके नाश हो जानेपर तो दूसरा शरीर पुन मिल सकता है । परन्तु नष्ट धर्मका पुन मिलना दुर्लभ है।' सल्लेखना धारण करनेवाले जीवका किसी वस्तुके प्रति राग अथवा द्वेष नही होता। उसकी एक ही भावना होती है और वह है विदेहमुक्ति । समन्तभद्रस्वामीने लिखा है स्नेह वैर सङ्ग परिग्रह चापहाय शुद्धमनाः । स्वजन परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः ।। आलोच्य सर्वमेन कृतकारितमनुमत च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ।। शोक भयमवसाद क्लेद कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्स्माहमुदीर्य च मन प्रसाद्य श्रु तैरमृतै ॥ आहार परिहाप्य क्रमश स्निग्ध विवर्द्धयेत्पानम् । स्निग्ध च हापयित्वा खरपान पूरयेत्क्रमश ॥ खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या। पञ्चनमस्कारमनास्तनु त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥ 'क्षपक इष्ट वस्तुसे राग, अनिष्ट वस्तुसे द्वेप, स्त्री-पुत्रादिसे ममत्व और धनादिसे स्वामीपनेकी बुद्धिको छोडकर पवित्र मन होता हआ अपने परिवारके लोगो तथा पुरा-पडोसी जनोंसे जीवन में हुए अपराघोको क्षमा करावे और स्वय भी उन्हें प्रियवचन बोलकर क्षमा करे और इस तरह अपने चित्तको निष्कषाय बनावे ।' 'इसके पश्चात वह जीवनमें किये, कराये और अनुमोदना किये समस्त हिंसादि पापोकी निश्छल भावसे आलोचना (खेद-प्रकाशन) करे तथा मृत्युपर्यन्त समस्त महाव्रतो (हिंसादि पांच पापोके त्याग) को धारण करे। 'इसके साथ ही शोक, भय, खेद, ग्लानि (घृणा), कलुषता और आकुलताको भी छोड दे तथा बल एव उत्साहको प्रकट करके अमृतोपम शास्त्रवचनोंसे मनको प्रसन्न रखे।' 'इसके बाद सल्लेखनाधारी सल्लेखनामें सर्वप्रथम आहार (भक्ष्य पदार्थों) का त्याग करे और दूध, छाछ आदि पेय पदार्थों का अभ्यास करे। इसके अनन्तर उसे भी छोडकर काजी या गर्म जल पीनेका अभ्यास करे।' 'बादमें उनको भी छोडकर शक्तिपूर्वक उपवास करे और इस तरह उपवास करते एव पचपरमेष्ठीका ध्यान करते हुए पूर्ण जागृत एव सावधानीसे शरीरका त्याग करे। इस विधिसे साधक अपने आनन्द-ज्ञान घन आत्माका साधन करता है और भावी पर्यायको वर्तमान जीर्ण-शीर्ण नश्वर पर्यायसे भी ज्यादा सुखी, शान्त, निर्विकार, नित्य-शाश्वत एव उच्च बनाने का सफल पुरुषार्थ करता है । नश्वरसे यदि अनश्वरका लाभ हो, तो उसे कौन विवेकी छोडनेको तैयार होगा? - ३२७ --

Loading...

Page Navigation
1 ... 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403