Book Title: Jain Tattvagyan Mimansa
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 361
________________ उनका निधन २२ अक्तूबर १९५६ का दुखद दिन चिरकाल तक याद रहेगा। इस दिन १२ बजे श्री सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखरजीकी पावन भूमि (ईशरी-पारसनाथ) में जहाँ २० तीर्थकरो और अगणित ऋषियोने तप व निर्वाण प्राप्त किया, इस युगके इस अद्वितीय तपस्वीने समाधिपूर्वक देह त्याग किया । ढाई घण्टे पूर्व साढे नौ बजे उन्होने आहारमें जल ग्रहण किया। दो दिन पूर्वसे ही अपने देहत्यागका भी सकेत कर दिया । क्षु० श्री गणेश प्रसादजी वर्णी, भगत प्यारेलालजी आदि त्यागीगणने उनसे पूछा कि 'महाराज, सिद्धपरमेष्ठीका स्मरण है ?" महाराजने 'हूँ' कहकर अपनी जागृत अवस्थाका उन्हें बोध करा दिया। ऐसा उत्तम सावधान पूर्ण समाधिमरण सातिशय पुण्यजीवोका ही होता है। आचार्य नमिसागरजीने घोर तपश्चर्या द्वारा अपनेको अवश्य सातिशय पुण्यजीव बना लिया था। एक सस्मरण जब वे बडौतमे थे, मैं कुथलगिरिसे आकर उनके चरणोमें पहुंचा और आचार्य शान्तिसागरजी महाराजकी उत्तम समाधिके समाचार उन्हें सुनाये तथा जैन कालेज भवन में आयोजित सभामें भाषण दिया तो महाराज गद्गद होकर रोने लगे और बोले-'गुरु चले गये और मैं अधम शिष्य रह गया ।' मैंने महाराजको धैर्य बधाते हुए कहा-'महाराज आप विवेकी वीतराग ऋषिवर है । आप अधीर न हो। आप भी प्रयत्न करें कि गुरुकी तरह आपकी भी उत्तम समाधि हो और वह श्री सिद्धक्षेत्र सम्मेद शिखरपर हो। वहाँ वर्णीजीका समागम भी प्राप्त होगा।' महाराज धैर्यको बटोरकर तुरन्त बोले कि'पडितजी, ठीक कहा, अब मैं चातुर्मास समाप्त होते ही तुरन्त श्री सम्मेद शिखरजीके लिये चल दूंगा और वर्णीजीके समागमसे लाभ उठाऊँगा।' उल्लेखनीय है कि चातुर्मास समाप्त होते ही महाराजने बडीतसे विहार कर दिया। जब मैं उनसे खुर्जामें दिसम्बर-जनवरीमें मिला तो देखा कि महाराजके पैरोमें छाले पड गये हैं । मैंने महाराजसे प्रार्थना की कि-'महाराज जाडोंके दिन हैं। १० मीलसे ज्यादा न चलिए।' तो महाराजने कहा कि-'पडितजी, हमें फाल्गुनकी अष्टान्हिकासे पूर्व शिखरजी पहुंचना है। यदि ज्यादा न चलेंगे तो उस समय तक नही पहुँच पायेंगे।' महाराजकी शरीरके प्रति निस्पृहता, वर्णीजीसे ज्ञानोपार्जनकी तीब्र अभिलाषा और श्रीसम्मेदशिखरजीकी ओर शीघ्र गमनोत्सुकता देखकर अनुभव हुआ कि आचार्यश्री अपने सकल्पकी पूर्तिके प्रति कितने सूदढ हैं । उनके देहत्यागपर श्री दि. जैन लालमन्दिरजीमें आयोजित श्रद्धाञ्जलि-सभामें महाराजके अध्यवसायकी प्रशसा करते हुए ला० परसादीलाल पाटनीने कहा था कि 'वडे महाराजको अन्न त्याग किये २॥ वर्ष हो गया और हम सब लोग असफल हो गये तो मा नमिसागरजी महाराजने अजमेरसे आकर दिल्लीमें चौमासा किया और हरिजन मन्दिर प्रवेश समस्याको अपने हाथमें लेकर ६ माहमें ही हल करके दिखा दिया ।' यथार्थमें उक्त समस्याको हल करनेवाले आचार्य नमिसागरजी महाराज ही हैं। आचार्य महाराजने अपनी कार्यकुशलता और बुद्धिमत्तासे ऐसी-ऐसी अनेक समस्याओको हल किया, किन्तु उनके श्रेयसे वे सदैव अलिप्त रहे और उसे कभी नही चाहा। उनमें वचनशक्ति तो ऐसी थी कि जो बात कहते थे वह सत्य सावित होती थी। देहत्यागसे ठीक एक मास पूर्व २३ सितम्बर '५६ को जब मैं सस्था (समन्तभद्र सस्कृत विद्यालय, देहली) की ओरसे वर्णी-जयन्तीपर उनके चरणोमें पहुँचा, तो महाराज बोले-'पडितजी, आपको मेरे समाघिमरणके समय आना है।' महाराजके इन शब्दोको सुनकर मैं चौंक गया और निवेदन किया कि 'महाराज

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