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उत्तर कितना सात्यिक, गपुर और सहिष्णुता घोता था। वर्णीजी सबके थे, गरीवके भी, अमीरके भी, विज्ञान भी, अनपढ़के भी, और वृद्ध तथा बच्चोंगे भी। उनका वात्सल्य गभी पर था। गाघीजीके लिए विटला जैसे फुवेर स्नेहपात्र थे तो उससे कम उनका स्नेह गरीयों या हरिजनोंसे न था। वे उनके लिए ही जिए और मरे । वर्णीजी जैन समाजमे गांधी थे । उनकी रग-रग में सबके प्रति समान स्नेह और यात्सल्य था।
हमें बुन्देलपण्डफा स्वय अनुभव है । यह एप्रकारमे गरीव प्रदेश है। यहाँ वर्णीजीने जितना हित और सेवा गरीयोकीगी है, उतनी अन्यकी नहीं। विद्याधी हो, विद्वान् हो । उद्योगहीन हो और चाहे कोई गरीबनी विधवा हो उन सबपर उनकी फातर दृष्टि रहती थी। वे इन सभी मसीहा थे। सत्यानुसरण
वर्णीजी वैष्णव फुलमे उत्पन्न हुए। किन्तु उन्होंने अमूह दुष्टि एव परीक्षा दिसे जैनधर्मको आत्मधर्म मानकर उसे अपनाया। उनका विवेक और श्रद्धा फितनी बढ़ एव जागृत हो, यह बात निम्न घटनासे स्पप्ट मालूम हो जाती है। वर्णीजी जब महारनपुर पहने और वहाँ आयोजित विशाल मार्वजनिक सभामें उपदेशके ममय एक अजैन भाईने उनसे प्रपन किया कि 'आपने हिन्दू धर्म छोटकर जो जनधर्म ग्रहण किया तो क्या वे विशेषताएँ आपको हिन्दूधर्ममें नहीं मिली ?' इमया उत्तर वर्णीजीने बढे सन्तुलित शब्दोमे देते हुए कहा कि 'जितना सूक्ष्म और विशर विचार तथा आचार हमें जैन धर्ममें मिला है उतना पडदर्शनोमें किमीमें भी नही मिला। यदि हो तो बतलायें, मै आज ही उस धर्मको स्वीकार कर ल। मैंने सब दर्शनोंके आचारविचारोको गहराईसे देखा और जाना है। मुझे तो एक भी दर्शनमें जैनधर्ममें वर्णित अहिंसा और अपरिग्रहफा अद्वितीय एव सूक्ष्म आचार-विचार नहीं मिला। इसीसे मैने जैनधर्म स्वीकार किया है। यदि सारी दुनिया जैनधर्म स्वीकार कर ले तो एक भी लडाई-झगडा न हो। जितने भी लडाई-झगडे होते है वे हिंसा और परिग्रहको लेकर ही होते हैं। ससारमें सुख-शान्ति तभी हो सकती है जब अहिंसा और अपरिग्रहका आचार-विचार सर्वत्र हो जाय ।' यह है वर्णीजोका विवेक और श्रद्धापूर्वक किया गया सत्यानुमरण । आचार्य अकलदेवने परीक्षक होने के लिए दो गुण आवश्यक माने हैं-१ अदा और २ गुणज्ञता (विवेक)। इनमेंसे एकका भी अभाव हो, तो परीक्षक नहीं हो सकता । पूज्य वर्णीजीमें हम दोनो गुण देखते हैं, और इस लिए उन्हें सत्यानुयायी पाते हैं। अपार करुणा
वर्णीजी कितने कारुणिक और परदुखकातर थे, यह उनकी जीवन-व्यापी अनेक घटनाओंसे प्रकट है। उनकी करुणाको न सीमा थो और न अन्त था। जो अहिंसक और सन्मार्गगामी थे उनपर तो उनका वात्सल्य रहता ही था, किन्तु जो अहिंसक और सन्मार्गगामी नही थे-हिंसक एवं कुमार्गगामी थे, उन पर भी उनकी करुणाका प्रवाह वहा करता था। वे किसी भी व्यक्तिको दुखी देखकर दुखकातर हो जाते थे। गत विश्वयुद्धोकी विनाशलीलाकी खबरें सुनकर उन्हें मर्मान्तक दुख होता था। सन् १९४५ में जब आजाद हिन्द फौजके सैनिकोंके विरुद्ध राजद्रोहका अभियोग लगाया गया और उन्हें फांसीके तख्ते पर चढाया जान वाला था, उस समय सारे देशमें अग्रेज सरकारके इस कार्यका विरोध हो रहा था और उनकी रक्षाके लिए धन इकट्ठा किया जा रहा था। उस समय वर्णीजी जवलपुरमें थे। एक सार्वजनिक सभाग, जो धन एकत्रित करनेके लिए की गयी थी, वर्णीजी भी उपस्थित थे। उनका हृदय करुणासे द्रवित हो गया और बोले"जिनकी रक्षाके लिए ४० करोड मानव प्रयत्नशील है उन्हें कोई शक्ति फांसीके तख्तेपर नहीं चढा सकती। आप विश्वास रखिए, मेरा अन्त करण कहता है कि आजाद हिन्द फौजके सैनिकोका बाल भी बाका नही हो सकता है।" इतना कहा और अपनी चद्दर (ओढनेकी) उनकी सहायताके लिए दे डाली। उसे नीलाम
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