________________
नियमसारकी ५३वीं गाथा और उसकी व्याख्या
एवं अर्थपर अनुचिन्तन
प्राथमिक वृत्त
आ० कुन्दकुन्दका नियमसार जैन परम्परामें उसी प्रकार विश्रुत एव - प्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ है जिस प्रकार उनका समयसार है। दोनो ग्रन्थोका पठन-पाठन और स्वाध्याय सर्वाधिक है। ये दोनो ग्रन्थ मूलत आध्यात्मिक हैं । हाँ, समयसार जहाँ पूर्णतया आध्यात्मिक है वहाँ नियमसार आध्यात्मिकके साथ तत्त्वज्ञान प्ररूपक भी है।
समयसार, प्रवचनसार और पचास्तिकाय इन तीनपर आ० अमृतचन्द्र की सस्कृत-टीकाएं हैं, जो बहुत ही दुरुह एव दुरवगाह हैं । किन्तु तत्त्वस्पर्शी और मूलकार आ० कुन्दकुन्दके अभिप्रायको पूर्णतया अभिव्यक्त करनेवाली तथा विद्वज्जनानन्दिनी है। नियमसारपर उनकी सस्कृत-टीका नही है । मेरा विचार है कि उसपर भी उनकी सस्कृत-टीका होनी चाहिए, क्योकि यह ग्रन्थ भी उनकी प्रकृति एव रुचिके अनुरूप है ।
इसपर श्री पद्मप्रभमलधारिदेवकी सस्कृत-व्याख्या उपलब्ध है, जिसमें उन्होने उसकी गाथाओकी सस्कृत-व्याख्या तो दी है । साथमें अपन और दूसरे ग्रन्थकारोके प्रचुर सस्कृत-पद्योको भी इसमें दिया है। उनकी यह व्याख्या अमृतचन्द्रकी व्याख्याओं जैसी गहन तो नहीं है, किन्तु अभिप्रेतके समर्थनमें उपयुक्त है ही।
प्रसगवश हम नियमसार और उसकी इस व्याख्याको देख रहे थे। जब हमारी दृष्टि नियमसारकी ५३वी गाथा और उसकी सस्कृत-व्याख्यापर गयी, तो हमें प्रतीत हुआ कि उक्त गाथाकी व्याख्या करनेमें श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवसे बहुत बडी सैद्धान्तिक भूल हो गयी है। श्रीकानजी स्वामी भी उनकी इस भूलको नही जान पाये और उनकी व्याख्याके अनुसार उक्त गाथाके उन्होने प्रवचन किये । सोनगढ और अब जयपुर से प्रकाशित आत्मधर्ममें प्रकट हुए उनके वे प्रवचन उसी भूलके साथ प्रकाशित किये गये हैं । सम्पादक डॉ० ५० हुकमचन्दजी भारिल्लने भी उनका सशोधन नही किया। सोनगढसे ही प्रकाशित नियमसार एव उसकी सस्कृत-व्याख्याका हिन्दी अनुवाद भी अनुवादक श्री मगनलाल जैनने उसी भूलसे भरा हुआ प्रस्तुत किया है।
ऐसी स्थितिमें हमें मूल गाथा, उसकी सस्कृत व्याख्या, प्रवचन और हिन्दी अर्थपर विचार करना आवश्यक जान पडा। प्रथमत हम यहाँ नियमसारकी वह ५३ वी गाथा और उसकी सस्कृत-व्याख्या दे
सम्मत्तस्स णिमित्त जिणसुत्त तस्स जाणया पुरिसा । अतरहेऊ भणिदा दसणमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥
०२५५.