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उपसहार
इस विवेचनसे स्पष्ट है कि नियमसारके सस्कृत-टीकाकार श्री पदमप्रभमलधारिदेवने उल्लिखित गाथाकी व्याख्यामें जिनसूत्रके ज्ञाता पुरुषोको सम्यक्त्वका उपचारसे अन्तरग हेतु पतला कर तथा उनसे दर्शनमोहनीय कमके क्षयादिकका सम्बन्ध जोड कर महान् सैद्धान्तिक भूल की है। उसी भूलका अनुमरण सोनगढने किया है। श्रीकानजी स्वामीने श्री पदमप्रभमलधारिदेवकी इस गाथा (५३) की सस्कृत व्याख्यापर सूक्ष्म ध्यान नहीं दिया । फलत उनकी ही व्याख्याके अनुसार उन्होने गाथा और व्याख्याके प्रवचन किये, जो बहुत बड़ी भूल है। गुजराती और हिन्दी अनुवादकोंने भी दोनोके अनुवाद उसी भूलसे भरे हुए किये।
इन भलोफा परिमार्जन होना आवश्यक है, ताकि गलत परम्परा मागे न चले।
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