Book Title: Jain Tattvagyan Mimansa
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 351
________________ कुम्भोजबाहुबलीमें मुनि समन्तभद्रजी, जो वर्धमानसागरजीसे दीक्षित, अनेक गुरुकुलोके संस्थापक एवं आजन्म ब्रह्मचारी, बी० ए०, न्यायतीर्थ है, विराजमान है, उनके दर्शन अवश्य करना और आचार्यथीके बारेमें उनसे विशेष जानकारी प्राप्त करना । अतएव २९ अगस्तको श्रीकुथलगिरिसे चलकर हम मिरज होते हुए ३० अगस्तको शेडवाल पहुंचे । वहाँ सौम्यमुद्रादित एव तेजस्वितापूर्ण मुनि वर्धमानसागरजीके दर्शन और आचार्य महाराज के वारेमें उनसे विशेष जानकारी प्राप्तकर बडा आनन्द हुआ। आचार्य महाराजके सदुपदेशसे यहाँ निर्मापितभव्य एव मनोहर तीस चौबीसी विशेष आकर्षणको वस्तु है। यहांका श्री शान्तिसागर दि० जैन अनाथाश्रम भी उल्लेखनीय है। शेडवालसे ३१ अगस्त को चलकर उसी दिन कुम्भोज-बाहुबली पहुँचे । मुनि समन्तभद्रजी महाराजके, जो अभीक्ष्णज्ञानोपयोगमें निरत रहते है, दर्शन किये और उनके साथ चर्चा-वार्ताकर अतीव प्रमुदित हुए। यहाँका गुरुकुल, समवशरणमन्दिर, स्वाध्यायमन्दिर, बाहुबली मन्दिर, सन्मतिमुद्रणालय आदि सस्थाएँ द्रष्टव्य हैं । इन सब सस्थाओंके सस्थापक एव प्राण महाराज समन्तभद्र है। महागज पहाडपर श्री १००८ बाहुबलीको २८ फुट उन्नत विशाल मूर्तिकी भी स्थापना कर रहे हैं। आप जैसा धर्मानुराग हमें अवतक अन्यत्र देखनेमे नही मिला । श्रमणसस्कृतिके आप सच्चे और मूक प्रसारक एव सेवक है। यहाँसे श्रमणवेलगोल-जनबिद्री ज्यादा दूर नही है। अत वहाँको विश्वविख्यात गोम्मटेश्वरको मूतिको वन्दनाका लोभ हम सवरण नही कर सके । श्री समन्तभद्र महाराजने भी हमे प्रेरणा की । अतएव कुम्भोज बाहुबलीसे १ सितम्बरको चलकर २ सितम्बरको ६॥ बजे शामको श्रमणवेलगोल पहुंचे । पहुँचते ही उसी दिन रातको तथा दूसरे दिन ३ सितम्बरको गोम्मटेश्वरकी उस महान् अद्वितीय, ५८ फुट उत्तुङ्ग, अद्भुत, सौम्य मूर्तिकी वन्दनाकर चित्त सातिशय आह्लादित हुआ। यह मूर्ति एक हजार वर्षसे गर्मी, बरसात और सर्दीकी चोटोको सहन करती हुई विद्यमान है और आज भी अपने निर्माताकी उज्ज्वल कीतिको विश्वविख्यात कर रही है। इतनी विशाल और उत्तङ्ग भव्य मूर्ति विश्वमें अन्यत्र नही है। यह वीतराग मूति दूरसे ही दर्शकको अपनी ओर खीच लेती है और अपनेमें उसे लीन कर लेती है। कुथलगिरिसे यहा वापिस हुए यात्रियों से ज्ञात हमआ कि महाराजकी स्थिति चिन्ताजनक है और २९ अगस्तसे १ सितम्बर तक जल नही लिया। इम समाचारसे मेरे मनमें महाराजके चरणों में पुन. और शीघ्र कुथलगिरि जानेके लिए ऊथल-पुथल एव बेचैनी पैदा हो गई। फलत ३ सितम्बर को ही श्रमणबेलगोलसे माटरसे हम कुथलगिरिके लिए पुन चल दिये और ४ सितम्बरको ९ बजे रात्रिमें मिरज आगये । आनेपर मालूम हुआ कि एडसी-कुथलगिरि जाने वाली गाडी आधा घण्टा पूर्व चली गई है और अब दूसरे दिन ११-४५ बजे जावेगी। फलस्वरूप उस दिन हम वही मिरज स्टेशन पर रहे। प्रात ५ मितम्बरको मिरज शहर में श्रीजिनमन्दिरके दर्शनोके लिए गये । वहाँ भी देवेन्द्रकोति भट्टारकजीसे भेंट हो गई। आप बहुत सज्जन भद्र भद्र हैं । मिरजसे ११-४५ बजेकी गाडीसे रवाना होकर ६ सितम्बरको एडसी होते हुए कुथलगिरि पहुंचे। यहाँ आते ही ज्ञात हुआ कि महाराजकी प्रकृति उत्तम है । २ मितम्बरसे ४ सितम्बर तक उन्होंने जल ग्रहण किया। कल ५ सितम्बरको जल नही लिया है। उसके बाद फिर भाचार्यश्रीने जल ग्रहण नही किया। आचार्यश्रीने दो एक बार जल ग्रहण करने के लिए प्रार्थना भी की गई, किन्तु आचार्यधीने दृढताके साथ कहा कि 'जब शरीर आलम्यन लिए विना पहा नहीं रह सकता तो हम पवित्र दिगम्बर चर्याफो सदोष नहीं बनायेंगे।' ७ सितम्बरको बम्बईमे किाटिंग मगोनके भाजानेसे ८ सितम्बरको महाराजसे अन्तिम उपदेशके लिए प्रार्थना की गई। महाराजन मयको -३२३ -

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