Book Title: Jain Tattvagyan Mimansa
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 319
________________ आचार्य कुन्दकुन्द भारतीय चिन्तको और ग्रन्थकारोमें आचार्य कुन्दकुन्दका अग्रपक्तिमें स्थान है । उन्होंने अपने विपुल वाड्मयके द्वारा भारतीय सस्कृतिको तत्त्वज्ञान और अध्यात्म प्रधान विचार तथा आचार प्रदान किया है । भारतीय साहित्य में प्राकृत भाषाके महापण्डित और इस भाषामे निवद्ध सिद्धान्त - साहित्यके रचयिता के रूपमें इनका नाम दूर अतीतकालसे विश्रुत है । मङ्गलकार्यके आरम्भमें बडे आदर के साथ इनका स्मरण किया जाता है । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर और उनके प्रधान गणवर गौतम इन्द्रभूतिके पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्दका मङ्गलरूपमें उल्लेख किया गया । जैसा कि निम्न पद्यसे प्रकट है मङ्गल भगवान् वीरो मङ्गल गौतमो गणी । मङ्गल कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् || इससे अवगत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द एक महान् प्रभावशाली हुए हैं, जो पिछले दो हजार वर्षो में हुए हजारो आचार्योंमें प्रथम एव असाधारण आचार्य है । उनके उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोने अपने ग्रन्थों में उन्हें सश्रद्ध स्मरण किया है । इतना ही नही, शिलालेखो में भी उनकी असाधारण विद्वत्ता, अनुपम सयम, अद्भुत इन्द्रिय-विजय, उन्हें प्राप्त ऋद्धि-सिद्धियो आदिका विशेष उल्लेख किया गया है। पट्टावलियोसे विदित है कि उन्होंने आठ वर्षकी अवस्थामे ही साधु-दीक्षा ले ली थी और समग्र जीवन सयम और तपोनुष्ठान पूर्वक व्यतीत किया था । वे चौरासी वर्ष तक जिये थे और इस लम्बे जीवनमें उन्होने दीर्घ चिन्तन, मनन एव ग्रन्थ-सृजन किया था । इनके समयपर अनेक विद्वानोंने ऊहापोहपूर्वक विस्तृत विचार किया है । (स्वर्गीय प० जुगलकिशोर ‘मुख्तार’ ने’अनेक प्रमाणोसे विक्रमकी पहली शताब्दी समय निर्धारित किया है । मूल सघकी उपलब्ध पट्टावलीके अनुसार भी यही ममय (वि० स० ४९ ) माना गया है । डॉ० ए० एन० उपाध्येने सभी मान्य समयपर गहरा ऊहापोह किया है और ईस्वी सन्‌का प्रारम्भ उनका अस्तित्व- समय निर्णीत किया है। ग्रन्थ-रचना कुन्दकुन्दने अपनी ग्रन्थ-रचनाके लिए प्राकृत, पाली और संस्कृत इन तीन प्राचीन भारतीय भाषाओमें प्राकृतको चुना । प्राकृत उस समय जन भाषा के रूपमें प्रसिद्ध थी और वे जन-साधारण तक अपने चिन्तनको पहुँचाना चाहते थे । इसके अतिरिक्त पट्खण्डागम, कषायपाहुड जैसे आर्ष ग्रन्थ प्राकृत मे ही निवद्ध होनेसे प्राकृतकी दीर्घकालीन प्राचीन परम्परा उन्हे प्राप्त थी । अतएव उन्होने अपने सभी ग्रन्थोंकी रचना प्राकृत भाषामें ही की । उनकी यह प्राकृत शौरसेनी प्राकृत है । इसी शौरसेनी प्राकृत में दिगम्बर परम्पराके उत्तरवर्ती आचार्योने भी अपने ग्रन्थ रचे हैं । प्राकृत - साहित्यके निर्माताओ में आचार्य कुन्दकुन्दका मूर्धन्य स्थान है । इन्होने जितना प्राकृत वाङ्मय रचा है उतना अन्य मनीपीने नही लिखा । कहा जाता है कि पुरातन - वाक्य-सूची, प्रस्तावना, पृ० १२, वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, १९५० ई० । २. प्रवचनसार, प्रस्तावना, पृ० १० २५, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, १९३५ ई० । - २९१ -

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