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पांच विरुद्धसाध्यो (साध्याभासो) का भी निरास किया है । न्यायप्रवेशकारने भी प्रशस्तपादका अनुसरण करते हुए स्वकीय पक्षलक्षणमे 'अविरोधी' जैसा ही 'प्रत्यक्षाधविरुद्ध' विशेपण दिया है और उसके द्वारा प्रत्यक्षविरुद्धादि साध्याभासोका परिहार किया है।
न्यायप्रवेश और माठरवृत्तिमें पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन अवयव स्वीकार किये हैं। धर्मकीर्तिने उक्त तीन अवयवोमेंसे पक्षको निकाल दिया है और हेतु तथा दृष्टान्त ये दो अवयव माने है । न्यायबिन्दु और प्रमाणवातिकमें उन्होने केवल हेतुको ही अनुमानावयव माना है।'
मीमासक विद्वान् शालिकानाथने प्रकरणपचिकामें, नारायण भट्टनै मानमेयोदयमें और पार्थसारथिनं न्यायरत्नाकरमें प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवोके प्रयोगको प्रतिपादित किया है ।
जैन तार्किक समन्तभद्रका सकेत तत्त्वार्थसूत्रकारके अभिप्रायानुसार पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवोको माननेका ओर प्रतीत होता है। उन्होने आप्तमीमासा (का०६, १७, १८, २७ आदि ) में उक्त तीन अवयवोसे साध्य-सिद्धि प्रस्तुत की है। सिद्धसेनन भी उक्त तीन अवयवोका प्रतिपादन किया है। पर अकलक और उनके अनुवर्ती विद्यानन्द", माणिक्यनन्दि', देवसूरि'३, हेमचन्द्र, धर्मभूषण'५, यशोविजय आदिने पक्ष और हेतु ये दो ही अवयव स्वीकार किये हैं और दृष्टान्तादि अन्य अवयवोंका निरास किया है। देवसरिने अत्यन्त व्युत्पन्नकी अपेक्षा मात्र हेतुके प्रयोगको भी मान्य किया है। पर साथ ही वे यह भी बतलाते हैं कि बहुलतासे एकमात्र हेतुका प्रयोग न होनेसे उसे सूत्रमे ग्रथित नही किया। स्मरण रहे कि जैन न्यायमें उक्त दो अवयवोका प्रयोग व्युत्पन्न प्रतिपाद्यकी दृष्टिसे अभिहित है। किन्तु अव्युत्पन्न प्रतिपाद्योकी
१ न्यायप्र० पृ० १। २ वही, पृ० १, २। ३ माठरवृ० का० ५। ४ वादन्या० पृ० ६१ । प्रमाणवा० १११२८ । न्यायवि०पू० ९१ । ५ प्रमाणवा० १,१२८ । न्यायवि० पृष्ठ ९१।। ६. प्र०प० पृ० २२० । ७ मा० मे० पृ० ६४ । ८ न्यायरत्ना० पृष्ठ ३६१ (मी० श्लोक० अनु० परि० श्लोक ५३) ९ न्यायाव० १३-१९ । १० न्या० वि०, का० ३८१ । ११ पत्रपरी०, पृ० १८ । १२ परीक्षामु० ३।३७ । १३ प्र० न० त० ३। २८, २३ । १४ प्र० मी० २।१।९। १५ न्याय० दी० पृष्ठ ७६ । १६ जैनत० पृ० १६ । १७ प्र० न० त० ३।२३, पृ० ५४८ ।
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