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पादभाष्य और न्यायप्रवेश जैसे ही हैं किन्तु सन्दिग्धसाध्य, सन्दिग्वसाधन और सन्दिग्धोभय ये तीन साधर्म्य दृष्टान्ताभास तथा सन्दिग्वसाध्यव्यावृत्ति, सन्दिग्वसावनव्यावृत्ति और सन्दिग्वोभयव्यावृत्ति ये तीन वैधर्म्य दृष्टान्ताभास न प्रशस्तपादभाष्यमें है' और न न्यायप्रवेश में । २ प्रशस्तपादभाष्य में आश्रयासिद्ध, अननुगत और विपरीतानुगत ये तीन सावर्म्य तथा मश्रर्यासद्ध, अव्यावृत्त और विपरीतव्यावृत्त ये तीन वैधर्म्य - निदर्शनाभास है । और न्यायप्रवेशमें अनन्वय तथा विपरीतान्वय ये दो साधर्म्य और अव्यतिरेक तथा विपरीतव्यतिरेकये दो वैधर्म्य दृष्टान्ताभास उपलब्ध हैं। पर हाँ, धर्मकीर्तिके न्यायविन्दुमे उनका प्रतिपादन मिलता है । धर्मकीर्तिने सन्दिग्धसाध्यादि उक्त तीन साधर्म्यदृष्टान्ताभासो और सन्दिग्धव्यतिरेकादि
वैधर्म्यदृष्टान्ताभासोका स्पष्ट निरूपण किया है । इसके अतिरिक्त धर्मकीर्तिने न्यायप्रवेशगत अनन्वय, विपरीतान्वय, अव्यतिरेक और विपरीतव्यतिरेक इन चार साधर्म्य वैधर्म्य दृष्टान्ताभासोको अपनाते हुए अप्रदर्शितान्वय और अप्रदर्शितव्यतिरेक इन दो नये दृष्टान्ताभासोको और सम्मिलित करके नव-नव सावर्म्यवैधर्म्य दृष्टान्ताभास प्रतिपादित किये हैं ।
अकलकने पक्षाभासके उक्त सिद्ध और बाधित दो भेदोके अतिरिक्त अनिष्ट नामक तीसरा पक्षाभास भी वर्णित किया है । जब नाष्य शक्य (अवाधित), अभिप्रेत (इष्ट) और असिद्ध होता है तो उसके दोष भी बाधित, अनिष्ट और सिद्ध ये तीन कहे जाएँगे । हेत्वाभासोके सम्बन्धमे उनका मत है कि जैन न्यायमें हेतु न त्रिरूप है और न पाँच रूप, किन्तु एकमात्र अन्यथानुपपन्नत्व (अविनाभाव) रूप है । अत उसके अभाव में हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिंचित्कर । असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ये उसीका विस्तार हैं । दृष्टान्तके विषय में उनकी मान्यता है कि वह सर्वत्र आवश्यक नही है । जहाँ वह आवश्यक है वहाँ उसका और उसके साध्यविकलादि दोषोका कथन किया जाना योग्य है ।
माणिक्यनन्दि", देवसूरि", हेमचन्द्र आदि जैन तार्किकोने प्रायः सिद्धसेन और अकलकका ही अनुसरण किया है ।
इस प्रकार भारतीय तर्कग्रन्थोके साथ जैन तर्कग्रन्थोमें भी अनुमानस्वरूप, अनुमानभेदों, अनुमानागो, अनुमानावयवो और अनुमानदोषोपर पर्याप्त चिन्तन उपलब्ध है ।
जैन अनुमानकी उपलब्धियां
यहाँ जैन अनुमानकी उपलब्धियोंका निर्देश किया जायेगा, जिससे भारतीय अनुमानको जैन ताकिकों की क्या देन है, उन्होने उसमें क्या अभिवृद्धि या सशोधन किया है, यह समझनेमें सहायता मिलेगी । अध्ययनसे अवगत होता है कि उपनिषद् कालमें अनुमानकी आवश्यकता एव प्रयोजनपर भार दिया जाने लगा था, उपनिषदोमें 'आत्मा वाsरे व्रष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निविष्यासितव्य आदि वाक्यों द्वारा आत्माके श्रवणके साथ मननपर भी बल दिया गया है, जो उपपत्तियो १ प्रश० भा० पू० १२३ ।
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२ न्यायप्र०, पृ० ५-७ ।
३ न्याय० बि०, तृ० परि० पृष्ठ ९४-१०२ ।
४ न्यायविनि०, का० १७२, २९९, ३६५, ३६६, ३७०, ३८१ ।
५ परीक्षामु० ६।१२- ५० ।
६ प्रमाणन ०, ६।३८-८२ ।
७. प्रमाणमी०, ११२१४, २।१।१६-२७ ॥
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बृहदारण्य० २।४।५ ।
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