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४८ मुनि क्षपककी इस प्रकार सेवा करें। ४ मुनि क्षपकको उठाने बैठाने आदिरूपसे शरीरकी टहल करें। ४ मुनि धर्म-अमण करायें । ४ मुनि भोजन और ४ मूनि पान करायें। ४ मुनि देख-भाल रखें। ४ मुनि शरीरके मलमूत्रादि क्षेपण में तत्पर रहें। ४ मुनि वसतिकाके द्वारपर रहें, जिससे अनेक लोग क्षपकके परिणामो में क्षोभ न कर सकें । ४ मुनि क्षपककी आराधनाको सुनकर आये लोगोको सभा में धर्मोपदेशद्वारा सन्तुष्ट करें । ४ मुनि रात्रिमें जागें । ४ मुनि देशकी ऊँच-नीच स्थिति के ज्ञानमें तत्पर रहें । ४ मुनि बाहरसे आये-गयोंसे बातचीत करें ओर ४ मुनि क्षपकके समाधिमरण में विघ्न करनेकी सम्भावनासे आये लोगोसे वाद (शास्त्रार्थ द्वारा धर्म - प्रभावना) करें। इस प्रकार ये निर्यापक मुनि क्षपकको समाधिमे पूर्ण प्रयत्नसे सहायता करते है । भरत और ऐरावत क्षेत्रोमे कालकी विपमता होनेसे जैसा अवसर हो और जितनी विधि बन जाये तथा जितने गुणोके धारक निर्यापक मिल जायें उतने गुणोवाले निर्वापकोसे भी समाधि करायें, अतिश्रेष्ठ है । पर एक निर्यापक नहीं होना चाहिए, कम से कम दो होना चाहिए, क्योकि अकेला एक निर्यापक क्षपककी २४ घण्टे सेवा करनेपर थक जायगा और क्षपककी समाधि अच्छी तरह नही करा सकेगा'।']
इस कथनसे दो बातें प्रकाशमें आती हैं । एक तो यह कि समाधिमरण करानेके लिए दोसे कम निर्यापक नही होना चाहिए । सम्भव है कि क्षपककी समाधि अधिक दिन तक चले और उस दशामें यदि निर्यापक एक हो तो उसे विश्राम नही मिल सकता । अत कम-से-कम दो निर्यापक तो होना ही चाहिए । दूसरी बात यह कि प्राचीन कालमें मुनियोको इतनी बहुलता थी कि एक-एक मुनिकी समाधिमें ४८, ४८ मुनि निर्यापक होते थे और क्षपककी समाधिको वे निर्विघ्न सम्पन्न कराते थे । ध्यान रहे कि यह साधुओं की समाधिका मुख्यत वर्णन है। श्रावकोकी समाधिका वर्णन यहाँ गौण है ।
ये निर्यापक क्षपकको जो कल्याणकारी उपदेश देते तथा उसे सल्लेखनामें सुस्थिर रखते हैं, उसका पण्डित आशावरजीने वहा सुन्दर वर्णन किया है। वह कुछ यहाँ दिया जाता है
'हे क्षपक | लोकमें ऐसा कोई पुद्गल नही, जिसका तुमने एकसे अधिक बार भोग न किया हो, फिर भी वह तुम्हारा कोई हित नहीं कर सका। परवस्तु या कभी आत्माका हित कर सकती है ? आत्माका हित तो उसी के ज्ञान, सयम और श्रद्धादि गुण हो कर सकते हैं । अत वाह्य वस्तुओसे मोहको त्यागो, विवेक तथा सयमका आश्रय लो । और सदैव यह विचारो कि मैं अन्य हूँ और पुद्गल अन्य है । मैं चेतन है, ज्ञाता द्रष्टा हूँ और पुद्गल अचेतन है, ज्ञान-दर्शन रहित है। मे आनन्दघन हैं और पुद्गल ऐसा नहीं है ।'
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पिय चम्मा दढम्मा सविग्गावज्जभीरुणो धीरा । छदण्हू पञ्चइया परचमाणम्मि य विदण्डू || कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणज्जुदा सुद-रहस्या । गीदत्था भयवतो अडयालीस (४८) तु णिज्जवया ॥ णिज्जवया य दोणि वि होति जहणेण कालसरायणा । एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुत्ते ॥ २. सागारधर्मामृत ८-४८ से ८-१०७ ।
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शिवार्थ, भगवती आराधना गा० ६६२-६७३ ।