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भारतीय वाङ्मयमें अनुमान-विचार
प्रास्ताविक
भारतीय तर्कशास्त्रमें अनुमानका महत्त्वपूर्ण स्थान है। चार्वाक (लोकायत) दर्शनके अतिरिक्त शेष सभी भारतीय दर्शनोके अनुमानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है और उसे परोक्ष पदार्थों की व्यवस्था एव तत्त्वज्ञानका अन्यतम साधन माना है।
विचारणीय है कि भारतीय तर्कग्रन्थोमें सर्वाधिक विवेचित एव प्रतिपादित इस महत्त्वपूर्ण और अधिक उपयोगी प्रमाणका सव्यवहार कबसे आरम्भ हुआ? दूसरे, ज्ञात सुदूरकालमें उसे अनुमान ही कहा जाता था या किसी अन्य नामसे वह व्यवहृत होता था? जहाँ तक हमारा अध्ययन है भारतीय वाङ्मयके निबद्धरूपमें उपलब्ध ऋग्वेद आदि सहिता-ग्रन्थोमें अनुमान या उसका पर्याय शब्द उपलब्ध नहीं होता। हाँ, उपनिषद्-साहित्यमें एक शब्द ऐसा अवश्य आता है जिसे अनुमानका पूर्व सस्करण कहा जा सकता है और वह शब्द है 'वाकोवाक्यम्'२ । छान्दोग्योपनिषद्के इस शब्दके अतिरिक्त ब्रह्मबिन्दूपनिषदें अनुमानके अङ्ग हेतु और दृष्टान्त तथा मैत्रायणी-उपनिषद्में अनुमानसूचक 'अनुमीयते' क्रियाशब्द मिलते हैं । इसी तरह सुबालोपनिषदमें 'न्याय' शब्दका निर्देश है। इन उल्लेखोके अध्ययनसे हम यह तथ्य निकाल सकते है कि उपनिषद् कालमें अध्यात्म-विवेचनके लिए क्रमश अनुमानका स्वरूप उपस्थित होने लगा था।
शाहर-भाज्यमें 'वाकोवाक्यम्' का अर्थ 'तर्कशास्त्र' दिया है । डा० भगवानदासने भाष्यके इस अर्थको अपनाते हुए उसका तर्कशास्त्र, उत्तर-प्रत्युत्तरशास्त्र, युक्ति-प्रतियुक्तिशास्त्र व्याख्यान किया है। इन (अर्थ और व्याख्यान)के आधारपर अनुभवगम्य अध्यात्मज्ञानको अभिव्यक्त करनेके लिए छान्दोग्योयपनिषद्में व्यवहृत 'वाकोवाक्यम्'को तर्कशास्त्रका बोधक मान लेनेमे कोई विप्रतिपत्ति नही है । ज्ञानोत्पत्तिकी प्रक्रियाका अध्ययन करनसे अवगत होता है कि आदिम मानवको अपने प्रत्यक्ष (अनुभव) ज्ञानके अविसवादित्वकी सिद्धि अथवा उसको सम्पुष्टिके लिए किसी तर्क, हेतु या युक्तिकी आवश्यकता पडी होगी ।
प्राचीन बौद्ध पाली-ग्रन्थ ब्रह्मजालसुत्तमें तर्की और तर्क शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जो क्रमश तर्कशास्त्री तथा तर्कविद्याके अर्थमें आये है । यद्यपि यहाँ तर्कका अध्ययन आत्मज्ञानके लिए अनुपयोगी बताया गया है,
१ गौतम अक्षपाद, न्यायसू० ११११३, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी। २ ऋग्वेद भगवोऽध्येमि वाकोवाक्यमेकायन अध्येमि ।
-छान्दो० ७.११२, निर्णयसागर प्रेस बम्बई, सन् १९३२ । ३ हेतुदृष्टान्तवजितम् । ब्रह्मबिन्दू० श्लोक ९, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३२ । ४ वहिरात्मा गत्यन्तरात्मनानुमीयते ।-मैत्रायणी० ५।१, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३२ । ५ "शिक्षा कल्पो न्यायो मीमासा ।-सुबालोपनिष० खण्ड २, प्रकाशन स्थान व समय वही। ६ वाकोवाक्य तर्कशास्त्रम् ।-आ० शङ्कर, छान्दोग्यो० भाष्य ७।१०२, गीताप्रेस, गोरखपुर । ७ डा भगवानदास, दर्शनका प्रयोजन पृ १।। ८ 'इघ, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमसी । सो तक्कपरियाहत वीमसान
चरित ।-राय डेविड (सम्पादक), ब्रह्मजालसु० १।३२ ।