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अनुमानके भेद-प्रभेदोंकी चर्चा समाहित है। अत जैनागमोंमें भी अनुमानका पूर्वरूप और अनुमान प्रतिपादित है।
इस प्रकार भारतीय वाड्मयके अनुशीलनसे अवगत होता है कि भारतीय तर्कशास्त्र आरम्भमें 'वाकोवाक्यम्', उसके पश्चात् आन्वीक्षिकी, हेतुशास्त्र, तर्कविद्या और न्यायशास्त्र या प्रमाणशास्त्रके रूपोमें व्यवहत हआ। उत्तरकालमें प्रमाणमीगसाका विकास होनेपर हेतविद्यापर अधिक बल दिया गया । फलत आन्वीक्षिकीमें अर्थसकोच होकर वह हेतूपूर्वक होनेवाले अनुमानकी बोधक हो गयी। अत 'वाकोवाक्यम्' आन्वीक्षिकीका और आन्वीक्षिकी अनुमानका प्राचीन मूल रूप ज्ञात होता है।
अनुमानका विकास अनुमानका विकास निबद्धरूपमें अक्षपादके न्यायसूत्रसे आरम्भ होता है। न्यायसूत्रके व्याख्याकारोवात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, जयन्त भद्र, उदयन, श्रीकण्ठ, गगेश, वर्द्धमानउपाध्याय, विश्वनाथ प्रभृति ने अनुमानके स्वरूप, आधार, भेदोपभेद, व्याप्ति, पक्षधर्मता, व्याप्तिग्रहण, अवयव आदिका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। इसके विकासमे प्रशस्तपाद, माठर, कुमारिल जैसे वैदिक दार्शनिकोके अतिरिक्त वसुबन्धु, दिड्नाग, धर्मकीति, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर, शान्तरक्षित, अर्चट आदि बौद्ध नैयायिकों तथा समन्तभद्र, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, अकलक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, देवसूरि, हेमचन्द्र प्रमुख जैन ताकिकोने भी योगदान किया है। निसन्देह अनुमानका क्रमिक विकास तर्कशास्त्रको दृष्टिसे जितना महत्त्वपूर्ण एव रोचक है उससे कही अधिक भारतीय धर्म और दर्शनके इतिहासकी दृष्टिसे भी। यत भारतीय अनुमान केवल कार्यकारणरूप बौद्धिक व्यायाम ही नही है, बल्कि नि श्रेयस-उपलब्धिके साधनोमे वह परिगणित हैं। यही कारण है कि भारतीय अनुमानका जितना विचार तर्कग्रन्थों में उपलब्ध होता है उतना या उससे कुछ कम धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और पुराणग्रन्थोमें भी वह पाया जाता है।
प्रस्तुतमें हमारा उद्देश्य स्वतन्त्र रूपसे भारतीय तर्कग्रन्थोमें अनुमानपर जो चिन्तन उपलब्ध होता है उसीके विकासपर यहाँ समीक्षात्मक विचार करना है। (क) न्याय-दर्शनमे अनुमान-विकास
अक्षपादने अनुमानकी परिभाषा केवल 'तत्पूर्वकम् २ पद द्वारा ही उपस्थित की है । इस परिभापामें "तत्" शब्द केवल स्पष्ट है, जो पूर्वलक्षित प्रत्यक्षके लिए प्रयुक्त हमा है और वह बतलाता है कि प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान होता है, किन्तु वह अनुमान है क्या? यह जिज्ञासा अतृप्त ही रह जाती है। सूत्रके अग्राशम अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदष्ट ये तीन भेद उपलब्ध होते हैं। इनमें प्रथम दो भेदोमें आगत 'वत्' शब्द भी विचारणीय है । शब्दार्थको दृष्टिसे 'पूर्वके समान' और 'शेषके समान' यही अर्थ उससे उपलब्ध होता है तथा 'सामान्यतोदष्ट' से 'सामान्यत दर्शन' अर्थ ज्ञात होता है । इसके अतिरिक्त उनके स्वरूपका कोई प्रदर्शन नहीं होता।
सोलह पदार्थों में एक अवयव पदार्थ परिगणित है । उसके प्रतिज्ञा, हेत, उदाहरण, उपनय और निग १ प्रदीप सर्वविद्याना । इह त्वध्यात्मविद्यायामात्मादितत्त्वज्ञान ।
-वात्स्यायन, न्यायभा० १११११, पृष्ठ ११ । २ गौतम अक्षपाद, न्यायसू० १२११५, । ३ न्यायसू० १११।५।
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