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पुरजोर खण्डन करते है। पर वे इतना स्वीकार करते है कि हम केवल धर्मज्ञका अथवा धर्मज्ञताका निषेध करते हैं । यदि कोई पुरुष धर्मातिरिक्त अन्य सवको जानता है तो जाने, हमें कोई विरोध नही है ।
धर्मज्ञत्व-निषेधंस्तु केवलोऽनोपयुज्यते। सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ।। सर्वप्रमातृ-सबधि-प्रत्यक्षादिनिवारणात् ।
केवलाऽऽगम-गम्यत्व लप्स्यते पुण्य-पापयो २॥ किसी पुरुषको धर्मज्ञ न मानने में कुमारिलका तर्क यह है कि पुरुपोका अनुभव परस्पर विरुद्ध एव बाधित देखा जाता है। अत वे उसके द्वारा धर्माधर्मका यथार्थ साक्षात्कार नही कर सकते । वेद नित्य, अपौरुषेय और त्रिकालाबाधित होनेसे उसका ही धर्माधर्मके मामलेमे प्रवेश है (धर्मे चोदनव प्रमाणम्) । ध्यान रहे बौद्ध दर्शनमें बुद्धके अनुभव-योगिज्ञानको और जैन दर्शनमें अर्हत्के अनुभव-केवलज्ञानको धर्माधर्मका यथार्थ साक्षात्कारी बतलाया गया है। जान पडता है कि कुमारिलको इन दोनो दर्शनोकी मान्यता (धर्माधर्मज्ञतास्वीकार)का निषेध करना इष्ट है । उन्हें प्रयीवित मन्वादिका धर्माधर्मादिविषयक उपदेश मान्य
१ यज्जातीय प्रमाणस्तु यज्जतीयार्थदर्शनम् ।
दृष्ट सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ।।११२-सू० २ यत्राप्यतिशयो दृष्ट स स्वार्थानतिलघनात् । दरसमादिदष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवत्तिता ।।११४ येऽपि सातिशया दृष्टा प्रज्ञा-मेधादिभिर्नरा । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन नत्वतीन्द्रियदर्शनात् ।। प्राज्ञोऽपि हि नर सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टु क्षमोऽपि सन् । स्वजातीरनतिक्रमान्नतिशेते परान्नरान् । एकशास्त्रविचारे तु दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तरज्ञान तन्मात्रेणैव लम्यते ।। ज्ञात्वा व्याकरण दूर बुद्धि शब्दापशब्दयो । प्रकृष्यति न नक्षत्र-तिथि-ग्रहणनिर्णये ॥ ज्योतिर्विच्च प्रकृष्टोऽपि चन्द्रार्क-ग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दाना साधुत्व ज्ञातुमर्हति ।। दशहस्तान्तरे व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तु शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ तस्मादतिशयज्ञानरतिदूरगतैरपि । किंचिदेवाधिक ज्ञातु शक्यते न त्वतीन्द्रियम ||-अनन्तकीति द्वारा बहत्सर्वज्ञसिद्धिमें उद्धृत कारिकाएँ। २ इन दो कारिकाओंमें पहली कारिकाको शान्तरक्षितने तत्त्वसग्रहमें (३१२८ का०) और दोनोको अनन्त
कीर्तिने बृहत्सर्वज्ञसिद्धि (पृ० १३७) में उद्धृत किया है । ३ सुगतो यदि सर्वज्ञ कपिलो नेति का प्रमा ।
तावुभौ यदि सर्वज्ञो मतभेद कथ तयो ।। अष्टस पृ ३, उद्धृत ।