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सल्लेखनाका फल
सल्लेखना-धारक धर्मका पूर्ण अनुभव और लाभ लेनेके कारण नियमसे नि श्रेयस अथवा अभ्युदय प्राप्त करता है । समन्तभद्रस्वामीने सल्लेखनाका फल बतलाते हुए लिखा है -
''उत्तम सल्लेखना करनेवाला धर्मरूपी अमृतका पान करनेके कारण समस्त दु खोसे रहित होकर या तो वह नि श्रेयसको प्राप्त करता है और या अभ्युदयको पाता है, जहां उसे अपरिमित सुखोकी प्राप्ति होती है।'
विद्वद्वर पण्डित आशाघरजी कहते है कि 'जिस महापुरुषने ससार-परम्पराके नाशक समाधिमरणको धारण किया है उसने धर्मरूपी महान् निधिको परभवमें जाने के लिए अपने साथ ले लिया है, जिससे वह उसी तरह सुखी रहे जिस प्रकार एक ग्रामसे दूसरे ग्रामको जानेवाला व्यक्ति पासमें पर्याप्त पाथेय होनेपर निराकूल रहता है। इस जीवने अनन्त बार मरण किया, किन्तु समाधि-सहित पुण्य-मरण कभी नही किया. जो सौभाग्यसे या पुण्योदयसे अब प्राप्त हुआ है । सर्वज्ञदेवने इस समाधि-सहित पुण्य-मरणको बडो प्रशसा की है, क्योकि समाधिपूर्वक मरण करनेवाला महान् आत्मा निश्चयसे ससाररूपी पिंजरेको तोड देता है-उसे फिर ससारके बन्धनमें नही रहना पडता है।' सल्लेखनामे सहायक और उनका महत्त्वपूर्ण कर्तव्य
आराधक जब सल्लेखना ले लेता है, तो वह उसमें बडे आदर, प्रेम और श्रद्धाके साथ सलग्न रहता है तथा उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानी रखता हुआ आत्म-साधनामें गतिशील रहता है। उसके इस पुण्यकार्यमें, जिसे एक 'महान-यज्ञ' कहा गया है, पूर्ण सफल बनाने और उसे अपने पवित्र पथसे विचलित न होने देनेके लिए निर्यापकाचार्य (समाधिमरण करानेवाले अनुभवी मुनि) उसकी सल्लेखनामें सम्पूर्ण शक्ति एव आदरके साथ उसे सहायता पहुँचाते हैं और समाधिमरणमें उसे सुस्थिर रखते हैं। वे सदैव उसे तत्त्वज्ञानपूर्ण मधुर उपदेश फरते तथा शरीर और ससारको असारता एव क्षणभगुरता दिखलाते हैं, जिससे वह उनमें मोहित न हो, जिन्हें वह हेय समझकर छोड चुका या छोडनेका सकल्प कर चुका है, उनकी पुन चाह न करे। आचार्य शिवार्यने भगवती-आराधना (गा० ६५०-६७६) में समाधिमरण-करानेवाले इन निर्यापक मुनियोका वडा सुन्दर और विशद वर्णन किया है । उन्होने लिखा है :
'वे मुनि (निर्यापक) धर्मप्रिय, दृढश्रद्धानी, पापभीरु, परीषह-जेता, देश-काल-ज्ञाता, योग्यायोग्य- । विचारक, न्यायमार्ग-मर्मज्ञ, अनुभवी, स्वपरतत्व-विवेकी, विश्वासी और परम-उपकारी होते हैं। उनकी सख्या अधिकतम ४८ और न्यूनतम २ होती है।'
१ नि श्रेयसमभ्युदय निस्तीर दुस्तर सुखाम्बुनिधिम् ।
नि पिवति पीतधर्मा सर्वैर्दु खैरनालीढ ॥-रत्नक० ५-९ । २ सहगामि कृत तेन धर्मसर्वस्वमात्मन ।
समाधिमरण येन भव-विध्वसि साधितम् ॥ प्राग्जन्तुनाऽमुनाऽनन्ता प्राप्तास्तद्भवमृत्यव । समाधिपुण्यो न पर परमश्चरमक्षणः ।। पर शसन्ति माहात्म्य सर्वज्ञाश्चरमक्षणे । यस्मिन्समाहिता भव्या भजन्ति भव-पञ्जरम् ।।-साध० ७-५८, ८८२५, २८ ।