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वार सुख-शान्तिसे जीवनयापन करता है । विश्व भी एक परिवार है और राष्ट्र उसके सदस्य हैं उनमें रुचिभेद, विचार-भेद और माचार-भेद होना स्वाभाविक है, पर परिवारके सदस्योकी तरह उनमें तालमेल बैठाना या समझदार राष्ट्रोको बीचमें पडकर निष्पक्ष ढगसे उनमें समझौता करा देना आवश्यक है। इससे विश्वके छोटे-बडे किसी भी राष्ट्रका अन्य राष्ट्र के साथ सघर्ष नही हो सकता। 'रहो और रहने दो' और 'जिओ और जीने दो' का सिद्धान्त ही सहअस्तित्वका सिद्धान्त है तथा यह सिद्धान्त ही मनुष्यजातिकी रक्षा, समृद्धि और हित कर सकता है। यह सिद्धान्त न्याय तथा सत्यका पोषक एव समर्थक है । इस सिद्धान्तको ध्यानमें रखनेपर कभी न्याय या सत्यको हत्या नही हो सकती तथा सारे विश्वमें निर्भयता एव शान्ति बनी रह सकती है।
हमारे देशमें, जिसमें भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, महर्षि जैमिनि, कणाद, अक्षपाद, कपिल आदि धर्मोपदेशकोने जन्म लिया और अपने विचारो द्वारा जनकल्याण किया है, अनेक जातियां तथा अनेक धर्म हैं। सबका अपना-अपना स्थान है और सबको पनपने-बढनेका स्वातन्त्र्य है । एक जाति दूसरी जातिको, एक धर्म दूसरे धर्मको और एक वर्ग दूसरे वर्गको गिराकर वढ नहीं सकता। उसकी उन्नति या वृद्धि तभी सम्भव है जब वह दूसरेके भी अस्तित्वका विरोध नहीं करता, अपनी कुण्ठा, बुराइयो और कारणवश आ घुसी कमजोरियोको ही हटानेका प्रयास करता है। सच तो यह है कि दूसरी जाति, दूसरा धर्म या दूसरा वर्ग अपनी जाति, अपने धर्म और अपने वर्गका बाधक नही होता, बाधक वे दोष होते हैं जो हमपर हावी होकर हमसे अनौचित्य कराने में सफल हो जाते हैं । ऐसे दोष हैं सकीर्णता, असहिष्णुता, मूढता, कदाग्रह, ईर्ष्या, अहकार
और अनुदारता। यदि सतर्कता, विवेक, सहिष्णुता, सत्याग्रह, अमात्सर्य, निरहकार और उदारतासे काम लिया जाय तो जातियो, धर्मों और वर्गों में कभी भी सघर्षको सम्भावना नही की जा सकती है। जो हमारा है वह सत्य है और जो परका है वह असत्य है, यही दष्टिकोण संघर्षको जन्म देता है। इस संघर्षको बचानेके लिए अनेकान्तवादी दृष्टिकोण होना चाहिए । उस दृष्टिकोणसे ही परस्परमें सौहार्द सम्भव है । यदि कोई गलत मार्गपर है तो सही मार्ग उसके सामने रख दीजिये और उनमेंसे एक मार्ग चुननेकी छूट उसे दे दीजिये। आप उसके लिए अपना आग्रह न करें। निश्चय ही वह अपने विवेकसे काम लेगा और सत्यका अनुसरण करेगा। सत्यका आग्रह
आज विज्ञानका युग है। समझदार लोग विज्ञानके आधारसे सोचना, कहना और करना चाहते हैं । यह दृष्टिकोण सत्यके आग्रहका दृष्टिकोण है। लेकिन कभी-कभी आग्रही उसके माध्यमसे असत्यका भी समथन करने लगता है। अत पूर्वाग्रहसे मुक्त होनेपर ही सत्यको कहा और पकहा जा सकता है। समाजके दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों वर्ग भगवान महावीरके शासनके अनुयायी है। छोटे-मोटे उनमें अनेक मतभेद हैं और उनके गृहस्थो तथा साधओमें आचार-भेद भी हैं। किन्तु सबको बांधनेवाला और एकसूत्रमें रखने वाला महावीरका शासन है । जो मतभेद और आचार-भेद हो चुके हैं वे यदि कम हो सकें तो अच्छा है और यदि कम न भी हो तब भी वे एक सूत्र में बंधे रह सकते हैं। पिछली शताब्दियोमें दोनो परम्पराओमें फासला ही हुआ है, उन्हें समेटनेका दूरदर्शी सफल प्रयास हुआ हो, यह ज्ञात नही । फलत दोनोका साहित्य, दोनोंके आचार्य और दोनोंके तीर्थ उत्तरोत्तर बढते गये हैं। इतना ही होता तो कोई हानि नही थी। किन्तु भाज अपने साहित्य, अपने आचार्य और अपने तीर्थका आग्रह रखकर भी दूसरी परम्पराके साहित्य, आचार्य और तीर्थोके विषयमें स्वस्थ दृष्टिकोण नही है। एक साहित्यके महारथी अपने साहित्यकी अनुशसा करते समय
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