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चाहिए । यही समन्वयका मार्ग है। हमारा सब सच और दूसरेका सब झूठ, यह वस्तु-निर्णयको सम्यक् नीति नहीं है । हिन्दुस्तान हिन्दुओंका ही है, ऐसा मानने और कहने में झगडा है। किन्तु वह उसके निवासी जैनो, बौद्धो, मुसलमानो आदि दूसरोका भी है, ऐसा मानने तथा कहने में झगडा नही होता । स्याद्वाद यही बतलाता है। जब हम स्याद्वादको दृष्टिमें रखकर कुछ कहते हैं या व्यवहार करते हैं तो सत्यार्थकी प्राप्तिमें कोई भी विरोधी नही मिलेगा, जिसका निराकरण करना पडे ।
__डाक्टर सा०-बुद्ध और महावीरकी सेवाधर्मको नीति अच्छी है। उसे अपनानेसे ही जनताको शान्ति मिल सकती है ?
___ मैं-सेवाधर्म अहिंसाका ही एक अङ्ग है। अहिंसकको सेवाभावी होना ही चाहिए। महावीर और बुद्धने इस अहिंसाद्वारा ही जनताको बही शान्ति पहुंचायी थी और यही उन दोनों महापुरुषोकी लोकोत्तर सेवा थी, जिसमें जनताके कल्याण और अभ्युदयकी भावना तथा प्रयत्न समाया हुआ था। महात्मा गाधीने भी अहिंसासे राष्ट्रको स्वतन्त्र किया। वास्तवमें सेवा, परिचर्या, वैयावृत्त्य आदि अहिंसाके ही रूपान्तर है । कोई सेवा द्वारा, कोई परिचर्या द्वारा और कोई वैयावृत्त्य द्वारा जनताके कष्टोंको दूर करता है और यह कष्ट दूर करना ही अहिंसाकी साधना है।
डाक्टर सा०-आज आपने बहुत-सी दर्शन-सम्बन्धी गूढ बातोकी चर्चा की, इसकी हमें प्रसन्नता
मैं-मुझे खुशी है कि बापने अपना बहुमूल्य समय इस वार्ता के लिए दिया, इसके लिए आपको धन्यवाद देता हूँ।
यह वार्ता बडी मैत्री और सौजन्यपूर्ण हुई। लगभग आधे घटे तक यह हुई ।