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डॉक्टर सा०-दर्शनका प्रयोजन तो जगतमें शान्तिका मार्ग दिखानेका है। किन्तु जितने दर्शन है वे सब परस्परमें विवाद करते है। उनमे खण्डन-मण्डन और एक-दूसरेको बुरा कहने के सिवाय कुछ नही मालूम पड़ता है ? - मैं–नि सन्देह आपका यह कहना ठीक है कि 'दर्शन' का प्रयोजन जगत में शान्तिको मार्ग-प्रदर्शन है
और इसी लिए दर्शनशास्त्रका उदय हुआ है । जब लोकमें धर्मके नामपर अन्धश्रद्धा बढ गयी और लोगोका गतानुगतिक प्रवर्तन होने लगा, तो दर्शनशास्त्र बनाने पडे । दर्शनशास्त्र हमें बताता है कि अपने हितका मार्ग परीक्षा करके चुनो। 'धेलेकी हडी भी ठोक-बजाफर खरीदी जाती है तो धर्मका भी ग्रहण ठोक बजाकर करो। अमुक पुस्तकमें ऐसा लिखा है अथवा अमुक व्यक्तिका यह कथन है, इतने मात्रसे उसे मत मानो । अपने विवेकसे उसकी जाच करो, युक्त हो तो मानो, अन्यथा नही । जैन दर्शन तो स्पष्ट कहता और घोषणा करता है
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्य परिग्रह ॥ मूलमें सभी दर्शनकारोका यही अभिप्राय रहा है कि मेरे इस दर्शनसे जगतको शान्तिका मार्ग मिले। किन्तु उत्तर कालमें पक्षाग्रह आदिसे उनके अनुयायियोने उनके उस स्वच्छ अभिप्रायको सुरक्षित नही रखा और वे परपक्षखण्डन एव स्वपक्षमण्डनके दल-दलमें फंस गये। इससे वे दर्शन विवादजनक हो गये। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जैन दर्शनमें विवादोको समन्वित करने और मिटानेके लिए स्याद्वाद और अहिंसा ये दो शान्तिपूर्ण तरीके स्वीकार किये गये हैं। अहिंसाका तरीका आक्षेप और आक्रमणको रोकता है तथा स्याद्वाद उन सम्बन्धो, व्यवहारो एव धर्मोका समन्वय कर उनकी व्यवस्था करता है। कौन सम्बन्ध या धर्म वस्तुमें किस विवक्षासे है, यह स्यावाद व्यवस्थित करता है। उदाहरणार्थ द्रव्य (सामान्य) की अपेक्षा वस्तु सदा नित्य है और अवस्थाओ-परिणमनोकी अपेक्षा वही वस्तु अनित्य है। पहलेमें द्रव्याथिकनयका दृष्टिकोण विवक्षित है और दूसरेमें पर्यायाथिकनयका दृष्टिकोण है । जैन दर्शनमें असत्यार्थ-एकान्त मान्यताका अवश्य निषेध किया जाता है और यह जरूरी भी है। अन्यथा सन्देह, विपर्यय और अनध्यवसायसे वस्तुका सम्यग्ज्ञान नही हो पायेगा। घटमें घटका ज्ञान ही तो सत्य है, अघटमें घटका ज्ञान सत्य नही है। उसे कोई सत्य मानता है तो उसका निषेध तो करना ही पड़ेगा।
डाक्टर सा०-समन्वयका मार्ग तो ठीक नही है। उससे जनताको न शान्ति मिल सकती है और न सही मार्ग । हाँ, जो विरोधी है उसका निराकरण होना ही चाहिए ?
- मै-मेरा अभिप्राय यह है कि वस्तु में सतत विद्यमान दो धर्मोमेंसे एक-एक धर्मको ही यदि कोई मानता है और विरोधी दिग्वनेसे दूसरे धर्मका वह निराकरण करता है तो स्याद्वाद द्वारा यह बतलाया जाता है कि 'स्यात्'-कथचित्-अमक दृष्टिसे अमुक धर्म है और 'स्यात्'-कथचित्-अमुक दृष्टिसे अमुक धर्म हैं और इस तरह दोनो धर्म वस्तु में हैं। जैसे, वेदान्ती आत्माको सर्वथा नित्य और बौद्ध उसे सर्वथा अनित्य (क्षणिक) मानते हैं। जैन दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्तसे बतलाता है कि द्रव्यकी विवक्षासे वेदान्तीका आत्माको नित्य मानना सही है और अवस्था-परिणमनकी अपेक्षासे आत्माको अनित्य मानना बौद्धका कथन ठीक है। किन्तु आत्मा न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है । अत एव दोनो-वेदान्ती और बाद्धका आत्माको कथचित नित्य (द्रव्य दष्टिसे) और कथचित अनित्य (पर्यायष्टिसे) उभयात्मक स्वीकार करना ही वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन कहा जायेगा। उसकी गलत ऐकान्तिक मान्यताका तो निषेध करना ही