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खडनमें कुछ दूषण दिये हैं। शंकराचार्यने 'एकस्मिन्नसभवात्' द्वारा 'एक जगह दो विरोधी धर्म नही बन सकते हैं।' यह कहकर स्याद्वादमें विरोधदूषण दिया है। किन्ही विद्वानोने इसे सशयवाद, छलवाद कह दिया है, किन्तु विचारनेपर उसमें इस प्रकारके कोई भी दूषण नही आते हैं। स्याद्वादका प्रयोजन है यथावत् वस्तुतत्त्वका ज्ञान कराना, उसकी ठीक तरहसे व्यवस्था करना, अब ओरसे देखना और स्याद्वादका अर्थ है कथचित्वाद, दष्टिवाद अपेक्षावाद, सर्वथा एकान्तका त्याग, भिन्न-भिन्न पहलुओमे वस्तुस्वरूपका निरूपण, मुख्य और गौणकी दृष्टि से पदार्थका विचार। स्याद्वादमें जो 'स्यात्' शब्द है उसका अर्थ ही यही है। कि किसी एक अपेक्षासे-सब प्रकारसे नही-एक दृष्टिसे-है। 'स्यात्' शब्दका अर्थ 'शायद' नही है जैसा कि भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास' के लेखक विद्वान्ने भी समझा है। वे अपनी इस पुस्तकमें लिखते हैं कि 'स्याद्वादका वाच्यार्थ है 'शायदबाद' अगेजीमें इसे 'प्रोवेबिल्ज़िम' कह सकते हैं। अपने अतिरजितरूपमें स्याद्वाद संदेहवादका भाई है।" इसपर और आगे पीछेके जैनदर्शन सम्बन्धी उनके निबन्ध पर आलोचनात्मक स्वतन्त्र लेख ही लिखा जाना योग्य है। यहाँ तो केवल स्याद्वादको 'सदेहवाद' का भाई समझनेके विचारका चिंतन किया जायगा। उक्त लेखक यदि किसी जैन विद्वान्से 'स्याद्वाद' के 'स्यात्' शब्दके अर्थको निवन्ध लिखनेके पहिले अवगत कर लेते तो इतनी स्थूल गलती उन जैसोंसे-भारतीयदर्शनशास्त्रका अपनेको अधिकारी विद्वान समझने वालोसे-न होती। जैन विचारकोंने 'स्यात्' शब्दका जो अर्थ किया है वह मैं ऊपर बता आया हैं,। देवराजव्यक्तिमे अनेक सम्बन्ध विद्यमान हैं-किसीका वह मामा है तो किसीका भानजा, किसीका पिता है तो किसीका पुत्र, इस तरह उसमें कई सम्बन्ध मौजूद है। मामा अपने भानजेकी अपेक्षा, पिता अपने पकी अपेक्षा, भानजा अपने मामाकी अपेक्षा, पुत्र अपने पिताकी अपेक्षासे है, इस प्रकार देवराजमें पितृत्व, पुरत्व, मातुलत्व, स्वस्रीयत्व आदि धर्म निश्चित रूप ही है-सदिग्ध नही हैं और वे हर समय विद्यमान है । 'पिता' कहे जाने के समय पुश्रपना उनमेसे भाग नही जाता है-सिर्फ गौण होकर रहता है। इसी तरह जब उनका भानजा उन्हें 'मामा-मामा' कहता है उस समय वे अपने मामाकी अपेक्षा भानजे नही मिट जाते--उस समय भानजापना उनमें गौणमात्र होकर रहता है । स्याद्वाद इस तरहसे वस्तुधर्मोको गुत्थियोको सुलझाता है-उनका यथावत् निश्चय कराता है-स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल भावकी अपेक्षासे हो वस्तु 'सत'-अस्तित्ववान् है और परद्रव्य क्षेत्र, काल, भावको अपेक्षासे ही वस्तु 'असत्'-नास्तित्ववान है आदि सात भङ्गो द्वारा ग्रहण करने योग्य और छोडने योग्य (गौण कर देने योग्य) पदार्थों का स्याद्वाद हस्तामलकवत् निर्णय करा देता है। सदेह या भ्रमको वह पैदा नही करता है। बल्कि स्याद्वादका आश्रय लिये विना वस्तुतत्त्वका याथातथ्य निर्णय हो ही नही सकता है । अत स्याद्वादको सदेहवाद समझना नितात असाधारण भूल है। भिन्न दो अपेक्षाओसे विरोधी सरीखे दीख रहे (विरोधी नही) दो धर्मोके एक जगह रहने में कुछ भी विरोध नही है। जहां पुस्तक अपनी अपेक्षा अस्तित्वधर्मवाली है वहां अन्य पदार्थोकी अपेक्षा नास्तित्वधर्मवाली भी है, पर-निषेधके बिना स्वस्वरूपास्तित्व प्रतिष्ठित नही हो सकता है। अत यह स्पष्ट है कि स्याद्वादमें न विरोध है और न सन्देह जैसा अन्य कोई दूषण, वह तो वस्तूनिर्णयकातत्त्वज्ञानका अद्वितीय अमोघ शस्त्र है, सबल साधन है । वस्तु चूंकि अनेक धर्मात्मक है और उसका व्यवस्थापक स्याद्वाद है इसलिये स्याद्वादको ही अनेकान्तवाद भी कहते हैं। किन्तु 'अनेकान्त' और 'स्यादाद में वाच्य-वाचक-सम्बन्ध है।
१ आप्तमीमासा का० १०४ । ३. 'भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास', पृ० १३५ ।
२ आप्तमीमासा का० १०३ । ४ देखो, आप्तमीमासा का० १५ ।