Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Mimansa
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Digambar Jain Sanskruti Sevak Samaj

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Page 14
________________ xii महावीर की परम्परा मे आज एक ऐसे वर्ग (सोनगढी ) का भी उदय हुआ है जो अपने को महावीर का उपासक कहता हो नही है किन्तु उनकी उपासना भी करता है, शब्दो मे अपने को महावीर परम्परा की दिगम्बर शाखा का अनुयायी मानता है तथा मूल दिगम्बराचार्यो की रचनाओं को भी प्रमाण रूप से स्वीकार करता है किन्तु इस वर्ग की शब्दों की और वास्तविक स्थिति में अन्तर है शब्दो मे तो इस वर्ग का नारा रहा है कि भये हैं न होयगे मुनिन्द्र कुन्दकुन्द से किन्तु मान्यता के रूप मे इस वर्ग ने जिस तत्त्व का प्रतिपादन किया है वह महर्षि कुन्दकुन्द और अमृतचद के भी प्रतिकूल है । इस वर्ग की निम्नलिखित मान्यतायें है (१) सब हो द्रव्य परस्पर निरपेक्ष है अर्थात् सत्ता की तरह उनका परिणमन भी परनिरपेक्ष ही होता है साथ ही द्रव्योका परिणमन क्रमनियमित भी है शास्त्रो मे बहुचर्चित निमित्तकारण को इसने शब्दो मे मानकर भी अकिंचित्कर माना है इस ही का परिणाम है जो इसने जीव पर कर्म के प्रभाव को भी अस्वीकार किया है जीवका परिणमन चाहे वह स्वाभाविक हो या भाविक जीव के ही द्वारा होता है इस ही प्रकार कर्म की रचना भी अकेले पुद्गल का ही कार्य है कर्माय से जीवके विभावभाव एव जीव के विभावभाव से कार्मण वर्गणाओ का कर्मरूप परिणमन भी इसकी मान्यता के बाहर है, यह वर्ग 'अकालमरण को भी नही मानता । (२) द्रव्यों के परस्पर निरपेक्षता की दशा मे कालद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्य के कार्यों को भी इसने स्वीकार नही किया है ।

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