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प्रकाशकोय वक्तव्य
(मीमांसा को मीमांसाका) यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद उनके अनुयायी एक रूप मे न रह सके और उनमे सघभेद होगया पहिले यह भेद दिगम्बर और श्वेताम्वरके रूपमे हुआ और वादमे इनमे भी विभाजन हुआ है, श्वेताम्बरो मे मूर्तिपूजक और स्थानवासी के रूपमे भेद हुए और मागे चलकर स्थानकवासी भी तेरहपक्षी और वाईसटोले के रूपमे विभक्त होगये हैं।
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि इन भेदोका मूल कारण माधुका वस्त्ररहित और वस्त्र सहित होना ही है। महावीर की परम्परा मे भेदो और प्रभेदोके होनेपर भी परिग्रह की व्याख्या और उस सम्बन्धी चर्चाको छोडकर तात्विक मान्यतामे अन्तर नही के वरावर ही हुआ है यही कारण है कि एकादि सूत्रकी व्याख्या को छोडकर समूचे तत्त्वार्थ सूत्रको सवही ने प्रमाण रूप माना है तत्त्वार्थ सूत्रकी तरह भक्तामर स्तोत्रको मान्यता भी प्राय जैन परम्पराकी सवही शाखाओ मे है सबही शाखायें कर्मवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करती है । मोक्षमार्ग की प्रणाली मे व्यवहार निश्चयके साधन साध्य भाव को भी सेवही स्वीकार करते है । सत्ता के ध्यान से सवही द्रव्योको स्वतत्र मानने पर भी उनमे पाररपरिक सहयोग को भी सबही ने स्वीकार किया है । इस हो के आधार से वस्तु के उत्पाद मे