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भाषा परिमार्जित और भाव कथानुमाही। उनमें कवि सधार (वि. सं. १४११) के प्रद्य म्नचरित्र का सम्पादन और प्रकाशन महावीर भवन, जयपुर से हो चुका है। इसमें भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न की जीवन-गाथा है । प्रद्य म्न कामदेवजैसे रूप-सम्पन्न थे। उनका जीवन घटना-बहुल और वीरता-सम्पन्न था। डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने पं० रामचन्द्र शुक्ल की परिभाषा के प्राधार पर, इसे प्रबन्ध काव्य सिद्ध किया है। उनका कथन है, "प्रद्युम्न चरित्र में पं० रामचन्द्र शुक्ल का प्रबन्ध काव्य वाला लक्षण ठीक बैठता है । इसमें घटनामों का शृखलाबद्ध क्रम है, नाना भावों का रसात्मक अनुभव कराने वाले प्रसंगों का समावेश है। इन सबके अतिरिक्त यह काव्य श्रोतामों के हृदय में रसात्मक तरंगें उठाने में भी समर्थ है । इसलिये प्रद्युम्न चरित्र को निश्चित रूप से प्रबन्ध काव्य कहा जा सकता है ।"' किन्तु डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने इसे 'चउपई छन्दों को एक सतसई' कहा है । शायद उनका कथन इसके चउपई छन्दों की ७०१ संख्या पर प्राधृत है। मेरी दृष्टि में, चरित काव्यो को अपनी एक परम्परा और शैली थी। भले ही वह संस्कृत प्राचार्यों के द्वारा निरूपित प्रबन्ध काव्यों की बाह्यरूपता से तालमेल न बैठा पाती हो, किन्तु उनका अन्तः वैसा ही था, जैसा कि प्रबन्ध काव्यों का होता है । अर्थात्, उनमें चरितनायक के पूर्ण जीवन का संबंधनिर्वाह होता है और रस-परिपाक भी। अत: उन्हें प्रबन्ध काव्य कहने में छन्दों की सख्या बाधक नहीं हो पाती।
इस दृष्टि से हम ईश्वरसूरि के ललितांगचरित्र, ब्रह्मरायमल्ल के 'श्रीपाल रास' और महाकवि परिमल्ल के 'श्रीपालचरित्र' को भी प्रबन्ध काव्य कह सकते हैं । भाषा, काव्य-सौष्ठव. प्रबन्धात्मकता, रसात्मकता, और प्रकृति-निरूपण
आदि दृष्टियों से उन्हें हिन्दी-साहित्य का गौरव कहा जा सकता है। ये तीनों काव्य किसी संस्कृत या प्राकृत काव्य के अनुवाद नहीं है। उनमें पर्याप्त मौलिकता है और भाषा का अपना रूप, अपनी विधा और प्रस्तुतीकरण का अपना ढग । उनका कथानक पुराणों से लिया गया है। किन्तु इतने मात्र से कोई काव्य बासा नही हो जाता। कथानकों के लिये तो माज भी अनेकानेक साहित्यकार पुराणों के ऋणी हैं। कथानक को प्रागे बढ़ाना और उसे लक्ष्य तक पहुँचा देने का प्रपना तरीका होता है, जिसमें वह स्वयं और उसका युग भिदा रहता है । इसी भांति चरित्र-चित्रण में परिवर्तन भी स्वाभाविक है । ईश्वर सूरि,
१. प्रधुम्न चरित्र, महावीर भवन, जयपुर, सन् १९६०, प्रस्तावना, पृ. ३३ । २. देखिए वही, प्राक्कथन, पृ० ५।
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